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-५. ५२ ] . - दानफलम् - 338) चैत्यस्य कृत्यानि विलोकयन्तो ये पापभाजो यदि वा यतीनाम् ।
कुर्वन्त्युपेक्षामपि शक्तियुक्ता मिथ्यादृशस्ते जिनभक्तिमुक्ताः ॥ ४८ 339) प्रारम्भो ऽप्येष पुण्याय देवाद्य द्देशतः कृतः। .
सामग्यन्तरपातित्वाज्जीवनाय विषं यथा ॥ ४९ 340) भिन्नहेतुक एवायं भिन्नात्मा भिन्नगोचरः।
भिन्नानुबन्धस्तेन स्यात्पुण्यबन्धनिबन्धनम् ॥ ५० 341) लोभादिहेतुकः पापारम्मो गेहादिगोचरः ।
पापानुबन्धी संत्याज्यः कार्यो ऽन्यः पुण्यसाधनः॥ ५१ 342) धर्मारम्भरतस्य रज्यति जनः कीर्तिः परा जायते
राजानो ऽनुगुणा भवन्ति रिपवो गच्छन्ति साहायकम् । चेतः कांचन निर्वृनि च लभते प्रायो ऽर्थलाभः परः पापारम्भमराद्यनर्थविरतिश्चेति प्रतीता गुणाः ॥ ५२
बनकर अपनी सब सम्पत्ति को दे डालता है और गुणों को ग्रहण करता है। इस के अतिरिक्त वह दोष समूह को आच्छादित कर के प्राणों को भी छोड़ देता है ॥ ४७ ॥
जो पापीजन शक्तिसम्पन्न हो कर जिनप्रतिमा अथवा मुनियों के भी कार्यों कोपूजा, प्रतिष्ठा एवं आहार दानादि को- देखते हुए भी उनकी उपेक्षा किया करते हैं उन्हें जिनभक्ति से रहित मिथ्या दृष्टि समझना चाहिये ।। ४८ ।।
देव, शास्त्र व गुरु के उद्देश से किया गया महान् आरंभ भी उसकी सामग्री के अन्तर्गत होने से पुण्य के लिये होता है। जैसे-विष इतर सामग्री से युक्त होने पर जीवन के लिये -प्राण रक्षा का कारण भी होता है ।। ४९ ॥
इस आरंभ का चूंकि हेतु भिन्न, स्वरूप भिन्न, विषय भिन्न और सम्बन्ध भी भिन्न है; इसीलिये वह पुण्यबंध का कारण होता है ॥ ५० ॥
____ लोभ के कारण जो गृह-कुटुम्बादि - के विषय में आरम्भ किया जाता है वह पाप का बन्धक होने से छोडने के योग्य है । परन्तु दूसरा-जिनगृह व जिनप्रतिमा के निर्माणादि तथा आहारदानादि विषयक आरम्भ-पुण्य का बन्धक होने से आचरणीय है ।। ५१ ॥
जो भव्य धर्म के निमित्त आरम्भ में निरत होता है उस से लोग प्रेम करते हैं, उसे
४८) 1 अवगणनम् ।