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- धर्मरत्नाफर
[५. ४४
334) पापारम्भविवर्जनं गुरुयशोराशेः शुभस्यार्जनं
गेहाद्याग्रहनिग्रहेण मनसो निःसंगतासंगतिः । कल्याणाभिनिवेशिता तनुमतां सन्मार्गसंदर्शनं
धर्मारम्भवतां भवन्ति भविनामित्यादयः सद्गुणाः ॥ ४४ 335) स्थानोपयोगात्साफल्यं भवस्य विभवस्य च ।
परस्परोपकारः स्याद् धर्मतीर्थप्रवर्तनात् ।। ४५ 336) संसारसागरे घोरे देहभाजां निमज्जताम् ।
तीर्थ श्रीतीर्थनाथस्य यानपात्रमनुत्तरम् ॥ ४६ 337) भक्तिश्चेज्जिनशासने जिनपतौ संजायते निश्चला
तत्कृत्येषु बलात्मवृत्तिरतुला संपद्यते देहिनाम् । भक्तः किंकरतां प्रयाति दिशति स्वं स्वापतेयं गुणा - नादत्ते पिदधाति दूषणगणं प्राणानपि प्रोज्झति ॥ ४७
चाहिये । उदाहरणार्थ, यदि दासी की जूती को धारण किया जाता हो तो स्वामी की जूती को धारण करना कहीं उससे अधिक अच्छा है ॥४३॥
__धर्म के लिये आरम्भ करनेवाले भव्य जीवों के पाप को उत्पन्न करनेवाले आरम्भ का त्याग उत्तम विपुल कीर्ति की प्राप्ति, घर आदि विषयक ममत्व के नष्ट कर देने से मन की निःस्पृह वृत्ति का संयोग, तथा अन्य सब प्राणियों के कल्याण के अभिप्राय से उन्हें समीचीन मार्ग का दिखलाना, इत्यादि अनेक उतम गुण हुआ करते हैं ।। ४४ ॥
योग्य स्थान में जिन मंदिर और जिन प्रतिमा की पूजा प्रभावना के लिये जो अपनी सम्पत्तिका उपयोग करता है, उसका भव ( जन्म ) और वैभव दोनों ही सफल होते हैं । इस प्रकार धर्म तीर्थ की प्रवृत्ति के चलते रहने से दाता और पात्र का परस्पर में उपकार होता
भयानक संसारसमुद्र में डूबनेवाले प्राणियों के लिये श्रीतीर्थंकर का तीर्थ अनुपम नौका के समान सहायक होता है ॥ ४६ ॥
___ यदि जैन धर्म और जिनेन्द्र के विषय में स्थिर भक्ति होती है तो प्राणियों की अनुपम प्रवृत्ति उस जैन धर्म और जिनेन्द्र के कार्यों में जबरन् हुआ करती है । तथा भक्त पुरुष दास
४५) 1 दानात्. 2 मनुष्यजन्मनः. 3 दानात् दातृपानयोर्द्वयोः परस्परमुपकारो भवति । ४६) 1 प्राणिनाम्. 2 उपमारहितम् उतमं प्रधानम् । ४७),1 गच्छति. 2 यच्छति. 3 त्यजति ।