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________________ -५. ४३] - दानफलम् - - 329) अष्टापदाद्रौ' भरतादिभूपैर्वेश्मानि बिम्बानि च कारितानि । हर्षेण चक्रिप्रमुखैर्न मुख्यैः पूजा जिनानां विहिता हिता च ॥ ३९ 330) साधर्मिकेभ्यो भरतेन दत्तं भोज्यादि भक्त्या विविधं विधाय । मोक्षाय निःशेषमभूदमीषामेतज्जिनोक्तं क्रियमाणमेव ॥ ४० 331) ग्रामं क्षेत्रं वाटिकां कोषधान्यं वाहं हटें देवदेवाय भक्त्या । दत्त्वा केचित्पालयित्वा तथान्ये धन्याः सिद्धाः साधुसिद्धान्तसिद्धाः ॥४१. 332) आचेष्यन्ते सर्वकार्याण्यनार्या भार्यादीनां सर्वथा सर्वदा ये । देवादीनां नैव दीनास्तु मन्ये धर्मे द्वेषो निश्चितः कश्चिदेषाम् ॥ ४२ 333) आरम्भश्चेत् पापकार्ये ऽपि कृत्यो धर्मायासो संविधेयः सुधीभिः। वोढव्या चेच्चेटिकाया उपान बाढं व्यूढी तंद्वरं स्वामिनः सा ॥ ४३ रण भूमि -की रचना को और नन्दीश्वरादि पवों में अष्टाह्निक पूजा महोत्सव आदिको ठाट बाटसे करते हैं। इससे सिद्ध है कि धर्म के लिये आरम्भ करना अयोग्य नहीं है ।।३८॥ __भरत आदि राजाओं ने कैलाश पर्वतपर जिन मन्दिर और जिन प्रतिमाओं का निर्माण कराया है । तथा मनुष्यों में प्रमुख चक्रवर्ती आदि राजाओं ने जिनेन्द्रों की हितकारक पूजा आनन्दसे की है ॥३९॥ __ भरत चक्रवतीने साधर्मिक जनों को भक्तिपूर्वक अनेक प्रकार का आहारादि दान दिया था। और यह सब धर्मकार्य चूँकि आगमोक्त विधि से ही किया गया था, अतएव वह उनकी मुक्ति का कारण हुआ ॥ ४० ॥ कितने ही सज्जन देवाधिदेव के लिये-जिनालय आदि के संरक्षण के लिये- ग्राम, खेत, उद्यान, कोष-भंडार, धान्य (गेहूँ-चावल आदि) , वाह-घोडा या नाव आदि-और हाटबाजार या दूकान को देकर तथा दूसरे कितने ही भाग्यशाली सज्जन इन सब दी गई वस्तुओं का संरक्षण कर के साधु सिद्धान्त में सिद्ध-मुनिधर्म में निपुण-होते हुए मुक्ति को प्राप्त हुए हैं ॥४१॥ जो दुष्ट पुरुष पत्नी व पुत्र आदि के सर्व कार्यों में सर्वदा सर्व प्रकार से प्रयत्नशील रहते हैं, परंतु देव, गुरु व शास्त्र आदि के लिये कुछ नहीं करते हैं उन बेचारों का धर्म के विष. यमें कोई अपूर्व द्वेष निश्चित है ॥ ४२ ॥ जब पाप कार्य में भी आरंभ करना पडता है तब उसे धर्म के निमित्त तो करना ही ३९) 1 कैलासाद्री । ४०) 1 भरतादीनाम् । ४१) घोटकवृषभादि । ४२) 1 दीनानामनार्याणाम् । ४३) 1 करणीयः. 2 आरम्भः. 3 करणीयः. 4 वाहितव्या. 5 पाणही. 6 वाहिता गृहीता. 7 ततः, 8 सा उपानतू पाणही।
SR No.090136
Book TitleDharmaratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaysen, A N Upadhye
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year1974
Total Pages530
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size38 MB
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