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________________ - धर्मरत्नाकरः - [५. ३४324) संत्यज्य पूज्यं जननीजनादि ये दुष्टचेष्टामतिचेष्टयन्ति । तेषां भवन्तो ऽपि भवन्ति तुल्याः सक्ता गृहे देवगुरूंस्त्यजन्तः॥ ३४ 325) अथाप्यनारम्भवतो न यक्तं प्रारम्भणं धर्मनिमित्तमेव । द्रव्यस्तवो हन्त गतो ऽन्तमेवं ध्वस्तः समस्तो गृहमेधिधर्म : ॥ ३५ 326) द्रव्यस्तवः प्रधानो धर्मो गृहमेधिनां यतो ऽभिदधे । द्रव्यस्तवस्य विरहे भवत्यभावस्ततस्तस्य ॥ ३६ 327) युक्त्यागमाननुगत संगतमुपगन्तुमीदृशं न सताम् ।। द्रव्यस्तवभावस्तवरूपो धर्मो जिनैर्जगदै ॥ ३७ 328) जन्माभिषेकादिमहं जिनानां व्याख्यान धात्रीरचनां च चित्रीम् । कुर्वन्ति सर्व त्रिदशाधिपाद्या नन्दीश्वरादौ महिमानमुच्चैः॥३८ जो कुटुम्ब के निमित्त से कृषि आदि आरम्भ कार्यों को तथा आवश्यकतानुसार दूसरे भी पापकार्यों को तो करते हैं, परन्तु हिंसा के कारण बतलाकर देवपूजा एवं गुरुपूजा आदि शुभ कार्यों का निषेध करते हैं; उन्हें मुर्ख कैसे न समझा जाय ? अर्थात् अवश्य ही वे मुर्ख आत्मवंचना कर के अपने को नरकादि दुर्गतिका पात्र बनाते हैं ॥ ३३ ॥ हे शुभ कर्म निषेधक जनो ! जो अपने पूज्य माता पिता आदि को त्याग कर अतिशय निंद्य आचरण को करते हैं, आप भी उन्हीं के समान हैं । क्यों कि आप गृहस्थाश्रमी होते हुए भी घरपर आये हुए देव एवं गुरु आदि का अनादर करते हैं ॥३४॥ यदि यहाँ यह कहा जाय कि, जो स्वयं आरम्भसे रहित है उसके लिये धर्म के निमित्त से भी प्रकृष्ट आरम्भ करना योग्य नहीं है। तो उस के उत्तर में यह खेद के साथ कहना पडेगा कि इस प्रकार से तो द्रव्यस्तव--द्रव्यपूजा व दान आदि जो कि गृहस्थ का धर्म है वह सब समाप्त हो जावेगा। ॥३५॥ चूंकि गहस्थों के धर्म में द्रव्यस्तव को प्रधान कहा गया है, इसीलिये उस द्रव्यस्तव के नष्ट हो जाने पर गृहस्थ धर्मका विनाश होगा ही ॥ ३६ ॥ धर्म के निमित्त आरंभ करना योग्य नहीं है। यह उपर्युक्त कथन चूंकि युक्ति और आगम का अनुसरण नहीं करता, इसलिये वह सज्जनों के स्वीकारने योग्य नहीं है । कारण यह कि जिनेश्वरों ने धर्म को द्रव्यस्तव और भावस्तव रूप से दोनों भी प्रकार का कहा है ॥३७॥ इन्द्रादिक तीर्थंकरों के जन्माभिषेकादि उत्सव को, विचित्र व्याख्यान धात्री- समवस ३४) 1 आसक्ताः । ३५) 1 आरम्म रहितस्य. 2 दानादयः । ३७) 1 कथितम् । ३८) 1 D चरित्राम् ।
SR No.090136
Book TitleDharmaratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaysen, A N Upadhye
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year1974
Total Pages530
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size38 MB
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