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________________ -५. ३३] -दानफलम् - 319) परो व्यामोहयते येन गम्यते दुर्गतौ स्वयम् । क्रियते शासनोच्छेदो धिगीदृक्कल्किकौशलम् ॥ २९ 320) विज्ञप्तिः सा भवतु भविनां सा च वाचां प्रवृत्ति_श्चेतोवत्तिः कलिलविकला सैव सा कापि शक्तिः आज्ञा सैव प्रभवतु यया शक्यते संविधातुं मोहापोहः स्वपरमनसोः शासनाभ्युन्नतिश्च ॥ ३० 321) अन्नादिदाने ऽथ भवेदवश्यं प्रारम्भतः पाणिगणोपमर्दः ।। तस्मान्निषिद्धं ननु नेतियुक्तं यूकाभयानो परिधानहानम् ॥ ३१ 322) पापाय हिंसेति निवारणीया दानं तु धर्माय ततो विधेयम् ।। दुष्टा दशानामुरगादिदष्टा यैवाङ्गुली सा किल कर्तनीया ॥ ३२ 323) कृष्यादि कुर्वन्ति कुटुम्बहेतोः पापानि चान्यानि समाचरन्ति । देवादिपूजादि विवर्जयन्ति हिंसां भणित्वेति कथं न मूढाः ॥ ३३ ___ जो दूसरे के लिये व्यामोह उत्पन्न करता है- उसे भ्रान्ति में पाडता है- वह स्वयं दुर्गति को प्राप्त होता हुआ जैन धर्म को नष्ट करता है। उस के इस प्रकार के पाप की (कलियुगकी) कुशलता को धिक्कार है ॥२९॥ जिसके आश्रय से अपने और अन्य सार्मिकों के मन के मोह को नष्ट कर के धर्म की उन्नति की जा सकती है वही भव्यों की विज्ञप्ति, वही वचनप्रवृत्ति, वही पापरहित मनोवृत्ति, वही कोई अपूर्व शक्ति और वही आज्ञा प्रभावशालिनी हो सकती है ॥३०॥ अन्नादि के देने में चूंकि पीसने, कूटने एवं पकाने आदिका प्रकृष्ट आरम्भ होता है और उस आरम्भ से प्राणिसमूह की हिंसा होती है, इसीलिये अन्नादि दानका निषेध किया जाता है, ऐसा जो कहता है उसका वह कहना युक्तियुक्त नहीं है । कारण कि जुओं के भय से कुछ वस्त्रों को नहीं छोड़ा जाता है ॥ ३१ ॥ चूंकि हिंसा पाप का कारण है अतः उसका निषेध करना योग्य है । परन्तु दान तो धर्म का कारण है, अतः उसका निषेध न करके विधान करना ही योग्य है । उदाहरणार्थ, दस अँगुलियोंमें से जो अंगुली सर्पने काटने से दूषित बनी है उसे ही कटवाया जाता है ॥ ३२ ॥ २९) 1 PD पापं । ३०) 1 संसारिजीवानाम् । ३१) 1 D °पमर्दतः. 2 वस्त्रपरित्यागम् । ३२) 1 कर्तव्यं दातव्यम् । ३३) 1 ते कथं न मूढा भवन्ति अपि तु भवन्ति ।
SR No.090136
Book TitleDharmaratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaysen, A N Upadhye
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year1974
Total Pages530
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size38 MB
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