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________________ - धर्मरत्नाकरः [५. २४314) प्रत्तं प्रबन्धेन गिरा गुरूणां सामि केभ्यो भरतेन दानम् । अन्यैश्च धन्यैर्धनसार्थवाहमुख्यैः प्रभूतैः समयप्रसिद्धैः ॥ २४ 315) कल्याणहेतुस्तदभूदमीषां नानर्थसंपादि निरर्थकं वा । तीर्थाधिनाथप्रथमान्नदानं दातुः शिवाय प्रथितं निदानम् ॥ २५ 316) मुख्यं च धर्मस्य चतुर्विधस्य प्रोक्तं जिनेन्द्रैः समये समस्तैः । तीर्थान्तरीयैः कथितं च शिष्टं दानं जिनानां नितरामभीष्टम् ॥ २६ 317) बाह्यं तु पञ्च बाहयं यत्कारणं दानवारणे । अमीभ्यो दृश्यते नूनं न चादृष्टं प्रकल्प्यते ॥ २७ 318) स्वयं च सर्वं गृह्णन्ति गद्धा गृध्री इवामिषम् । कयापि भङ्ग्या निर्भाग्या भङ्गमन्यस्य कुर्वते ॥२८ त्रोंके लिये भी उस के देने की इच्छा नहीं कर सकता था। इस के अतिरिक्त कदाचित् अन्नादि देय वस्तु रोगादि का भी कारण हो सकती है । पर इस से उसे पाप का कारण नहीं माना जा सकता ॥ २३ ॥ - गुरुजनों के सदुपदेश से सन्दर्भपूर्वक भरत चक्रवर्ती ने तथा धन नामक प्रमुख व्यापारी आदि को लेकर आगम प्रसिद्ध अन्य भी बहुतसे पुण्यशाली पुरुषों ने साधर्मी जनों के लिये दान दिया था और वह दान भरतादि दाताओं तथा पात्रों के भी कल्याण का कारण हुआ है, वह न तो उन के अनर्थ का-आपत्ति का कारण हुआ है और न व्यर्थ भी हुआ है। तीर्थंकरों के लिये जो प्रथम बार आहारदान दिया जाता है वह दाता के लिये मुक्ति का कारण होता है, यह आगम में प्रसिद्ध है ॥ २४-२५ ॥ - सब ही जिनेन्द्रोंने दान, शील, पूजा और तप इस चार प्रकार के धर्म में दानधर्म को मुख्य कहा है । अन्य धर्मानुयायियों ने भी उस दान का वर्णन किया है। यह दानधर्म जिनेश्वरों को अतिशय अभीष्ट है ।। २६ ।। ... दान निषेध में जो पाँच प्रकार के कारण इन लोगों से कहे गये हैं वे इनके लिये ही दीखते हैं। जो अदृष्ट है अर्थात् जो नहीं दीखता है उसकी कल्पना नहीं की जाती है ॥ २७ ॥ जिस प्रकार गीध पक्षी (अन्य पक्षियों को बाधा पहुँचा कर) स्वयं ही सब मांस का ग्रहण किया करते हैं, उसी प्रकार भाग्यहीन जन लोलुपता के वश हो कर स्वयं तो सब कुछ ग्रहण करते हैं, परन्तु दूसरों के लिये किसी भी बहाने से उस दान में बाधा पहुँचाया करते हैं ॥२८॥ . २४) 1 दत्तम्. 2 PD उपदेशेन. 3 प्रत्तं दत्तम्. 4 प्रचुरैः. 5 श्रावकाणां मध्ये मुख्यैः D श्रावकाणां । २५) 1 भरतादीनाम्. 2 कारणम् । २६) 1 दानपूजाशीलतपसः चतुर्विधस्य धर्मस्य । २८) 1 D गृद्धा ।
SR No.090136
Book TitleDharmaratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaysen, A N Upadhye
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year1974
Total Pages530
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size38 MB
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