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________________ - धर्मरत्नाकर: [५.६५१295) दुराग्रहग्रहनस्ते विद्वान् पुंसि करोति किम् । कृष्णपाषाणखण्डेषु मार्दवाय न तोयदः ॥ ६*१ 296) प्रायः संप्रति कोपाय सन्मार्गस्योपदेशनम् । निस्ननासिकस्येव विशुद्धादर्शदर्शनम् ॥ ६*२ 297) तथापि किंचित्कथयामि युक्तं मध्यस्थलोकस्य खलूपयुक्तम् । मोहव्यपोहायं विहार्य कृत्यं स्वार्थात्परार्थो महतां महिष्ठः ॥ ७ 298) यावर्ष ननु जिनवृषो वर्षति स्वर्णवर्ष हर्षोत्कर्ष प्रणयिशिखिनां बिभ्रदुर्वांगतानाम् । नो संदिग्ध न च विरचितं केनचिन्मादशेदं प्रोक्तं प्रोच्चैरविचलवचोविश्रुतैः श्रीश्रुतः ॥ ८ दुराग्रह रूप पिशाच से पीडित मनुष्य के विषय में भला विद्वान् क्या कर सकता है ? अर्थात् वह भी उसे समझाने में समर्थ नहीं होता है । सो ठोक भी है, क्योंकि, मेघ काले पत्थर के टुकड़ों पर बरस कर के कुछ मृदुता को उत्पन्न नहीं कर सकते हैं ॥ ६*१ ॥ जिस प्रकार नकटे को निर्मल दर्पण का दिखलाना क्रोध को उत्पन्न करनेवाला होता है, उसी प्रकार वर्तमान में सन्मार्ग का उपदेश देना भी प्रायः कोप का कारण हुआ करता है ॥ २॥ इस प्रकार यद्यपि वर्तमान में समीचीन उपदेश का देना भी क्रोध का जनक होता है तो भी मैं मध्यस्थ जन को लक्ष्य कर के उनके मोह को नष्ट करने के लिये स्वार्थ कार्य को छोडता हुआ कुछ योग्य उपदेश को करता हूँ, जो कि उनके लिये उपयोगी हो सकता है। और यह ठीक भी है, क्योंकि, महान् पुरुष स्वार्थ की अपेक्षा परोपकार को ही अधिक महत्त्व दिया करते हैं ॥ ७॥ समस्त भूमण्डलगत याचक रूपी मोरों को अतिशय आनन्दित करने के लिये एक वर्षतक जिनवृष – तीर्थंकर प्रभु - सुवर्ण को वृष्टि को किया करते हैं। यह वचन न तो संदिग्ध और न मुझसरीखे किसी अल्पज्ञ पुरुष के द्वारा कहा गया है। किन्तु उसे अतिशय निश्चल (सत्य) भाषण से ख्याति पाये हुए श्री श्रुत के ज्ञाता पूर्वाचार्यों ने ही कहा है ॥ ८ ॥ ६५१ 1 पुरुषे. 2 न भवति. 3 मेघः। ७) 1 कथंभूतम उपदेशम्. 2 कस्य. 3 उपदेशम्. 4 कस्म मोहविनाशाय. 5 परित्यज्य. 6 निजकार्यम् । ८) 1 शिष्य. 2 धारयन्. 3 पृथ्वीगतानाम्. 4 संदेहरहितम् ।
SR No.090136
Book TitleDharmaratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaysen, A N Upadhye
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year1974
Total Pages530
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size38 MB
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