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- दानफलम् - 291) लिडिगपाशाः सुदुर्बुद्धिमारोप्येत्थं सुकर्मणाम् ।
गृह्णन्ति निभृताः सर्वं बका इव हि धार्मिकाः ॥ ३ 292) नो जानन्ति जिनागमं जडधियो नो सौगताद्यागमं
नो लोकस्थितिमुज्ज्वलामृजु महो व्यामोहयन्तो ऽन्वहम् । दातृणामथ गृह्णतामसुमतां कृत्वान्तरायं तरां
मिथ्यादेशनया नयन्ति नरकं लोकं व्रजन्ति स्वयम् ॥४ 293) महानुभावा भवमुत्तरीतुं प्राणैरपि प्राणिगणोपकारम् ।
कुर्वन्ति केचित्करुणार्द्रचित्ताश्चन्द्रा इवाल्हादितजीवलोका : ॥५ 294) अन्ये ऽमुनैव परितापितविश्वविश्वा
वैश्वानरा इव नरा निरयै रयेणं । गन्तुं द्वयप्रकृतयः कथयन्ति मिथ्या किं कुर्महे वयमहो विषमो हि मोहः ॥६ तथा चोक्तं कलिकालसर्वज्ञैः
जो कुलिंगी साधु पुण्यकार्यों में ऐसी दुर्बुद्धि को आरोपित कर के विनीत भाव से सब को ग्रहण करते हैं वे बगला पक्षियों के समान धार्मिक हैं॥3॥
वे दुष्ट बुद्धि न तो जिनागम को जानते हैं, न बौद्ध आदिकों के आगम को जानते हैं और न निर्मल लोकव्यवहार को भी जानते हैं। वे भोले मनुष्यों को प्रतिदिन मुग्ध करते हुये दाता और ग्राहक प्राणियों के मध्य में दान देने का अतिशय निषेध कर के मिथ्योपदेश के द्वारा दूसरे लोगों को नरक में ले जाते हैं और स्वयं भी नरक में जाते हैं ।। ४ ।।
चंद्र के समान सब जीवों को आनंदित करनेवाले कितने ही महानुभाव संसार से पार होने के लिये मन में अतिशय दयालु हो कर अपने प्राणोंसे (प्राण बेचकर) भी प्राणिसमूह का उपकार किया करते हैं ।। ५॥
___अग्नि के समान समस्त विश्व को संतप्त करनेवाले दूसरे जन स्त्री और नपुंसक की प्रकृति से युक्त - मायाचारी - हो कर शीघ्रतासे नरक में जाने के लिये मिथ्या उपदेश करते हैं । इस विषय में हम क्या करें ? क्योंकि मोह भयानक है ॥ ६ ॥
इस विषय में कलिकालसर्वज्ञ ने कहा भी है -
३) 1 लिछमेव पाशः तिर्यग्जीवबन्धनो येषां ते लिङ्गिपाशा:. 2 पुण्यवतां धनयुक्तानां राजादीनाम्. 3 मायया प्रच्छन्नाः। ४)1 सरलं जनं लोकं मोहयन्तः सन्तः. 2 दिनं दिनम्.3 प्राणिनाम्.4 विघ्नं विनाशम् । ६)1 नरके.2 वेगेन. 3 किंचिदुपकारकिचित्संतापकारिणः दयप्रकृतयः ।