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[५. पञ्चमो ऽवसरः]
[ दानफलम् ] 288) जिनागमं ये ऽनधिगम्य सम्यग्गम्भीरमात्मरयों वराकाः ।
दान निषेधन्ति वचो न कर्णे कर्णेजपानां करणीयमेषाम् ॥१ 289) आरम्भायैर्नियतमुदयेद्वस्तुजातं यतो शो
हिंसा दाने भवति गदिते ऽप्यन्तरायो निषिद्धे यत्तत्तूष्णीमुचितमधुना स्थातुमात्मेश्वराणा
मर्थे ऽमुष्मिन् समुपगृणते सूत्रकृत्सूत्रमज्ञाः ॥२ 290) जे हु दाणं पसंसति वहमिच्छंति पाणिणं ।
जे उणं पडिसेंहति अंतरापं कुणंति ते ॥ २*१
जो बेचारे स्वार्थ से प्रेरित हो कर ठीक से गंभीर जिनागम का अध्ययन न करते हुए धान का निषेध करते हैं उन कर्णेजपों के - निंदकों के - वचन को कान पर नहीं लेना पाहिये - उस पर ध्यान नहीं देना चाहिये ॥१॥
कि सब वस्तुओंकी उत्पत्ति आरम्भादिके द्वारा होती है, इसलिये दान देने में हिंसा होती है। तथा दान देने को उद्यत हुए जन को 'तू दान मत दे' ऐसा निषेध करने पर अन्तसब होता है। इस लिये इस प्रकरण में आत्मज्ञों को चुपचाप रहना योग्य है । ऐसा कहनेवाले अशानी के विषय में सूत्रकार का ऐसा सूत्र कहते हैं ।। २॥
जो दान की प्रशंसा करते हैं वे प्राणियों के वध की इच्छा करते हैं। तथा जो उस दान का निषेध करते हैं वे अंतराय को करते हैं ॥ २१ ॥
१) 1 न ज्ञात्वा ज्ञात्वेत्यर्थः. 2 कथंभूतास्ते वराकाः निजोदरपूरका:. 3 कथंभूतानां तेषां वरा काणाम्, कर्णेजपानां जनैनिन्द्यानाम् । २) 1 आरम्मादि भवति. 2 तस्मिन् दाने निषेधिते सति अन्तरायो भवति.3 हिंसा दाने कथने ऽपि. 4 कथयन्ति. २*१) 1p°उतु पुनः. 2 वहं वधं हिंसाम्, D वधं.3 जीवानाम्, D प्राणिनां.4 पुनः निषेधः, D पुनः. 5 D प्रतिषेधन्ति ।