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________________ -५. १२] - दानफलम् - 299) निष्क्रान्तिकाले सकला जिनेन्द्रा यादृच्छिक दानमतुच्छवाञ्छाः । यच्छन्ति विच्छिन्नदरिद्रभावं मेघा इवाम्भो भुवि निर्विशेषम् ॥९ 300) दिशन्त्येते मोहान्न खलु निखिलेभ्यः स्वविभवं भवन्तो विज्ञानस्त्रिभिरपतितैस्तीर्थपतयः भवे पूर्वे ऽभ्यस्तैरनुगतधियो नाप्यकुशलं' प्रवृत्तेः कर्मास्याः किमविकसितं कारणमिह ॥ १० 301) किंतु दानान्तरायस्य कर्मणो ऽपचये सति । क्षायोपशमिके भावे दानमुक्तं जिनागमे ॥ ११ 302) अर्थे ऽपि तीर्थकुन्नाम नामकर्मोदयादयम् । दयाकरो महासत्त्वः सर्वसत्त्वोपकारकः ॥ १२ जिस प्रकार मेघ बिना किसी भेदभाव के पृथिवी पर सर्वत्र जल को दिया करते हैं उसी प्रकार समस्त तीर्थकर दीक्षा ग्रहण के समय में महती इच्छा के वशीभूत हो कर-निरीहवृत्ति से-सबके लिये बिना किसी प्रकार के भेदभाव के दरिद्रता को नष्ट करनेवाले इच्छानुरूप दान को दिया करते हैं ॥ ९ ॥ ये अप्रतिपाति तीन ज्ञानों-मति, श्रुत, एवं अवधि के साथ तीर्थकर हो कर पूर्व भव में अभ्यस्त उक्त तीनों ज्ञानों से अनुगत बुद्धि हो कर समस्त प्राणियों के लिये कुछ अज्ञानता से दान नहीं दिया करते हैं। साथ ही वे इस दान के रूप में प्राणियों का कुछ अहित करते हों, सो भी नहीं है। फिर उनकी दान प्रवृत्ति का कारण यहाँ कौनसा विकासरहित कर्म समझा जाय?॥१०॥ परन्तु दानान्तराय कर्म का अपचय-सर्व घातिस्पर्धकों का उदयक्षय-होने पर क्षायोपशमिक दान भाव आत्मा में प्रगट होता है और तब उनकी दान में प्रवृत्ति होती है, ऐसा जिनागम में कहा है ॥११॥ __ जिस प्रकार (दानान्तरायके क्षय के साथ) तीर्थंकर नामक नामकर्म के उदय से दया को खानि-अतिशय दयालु, महाबली-(या महात्मा) और समस्त प्राणियों के उपकार में निरत ये तीर्थंकर जिनदेशना में धर्मदेशना में प्रवृत्त होते हैं उसी प्रकार वे दानान्तराय के क्षयोपशम जनित दान-गुण से प्रेरित हो कर वे गृहस्थावस्था में अर्थ के प्रदेशन में-सुवर्णादि के दान में भी निरन्तर ९) 1 दीक्षाकाले. 2 यदृच्छया वाञ्छितम् । १०) 1 यच्छन्ति. 2 याचकेभ्यः. 3 स्ववैभवं प्रयच्छन्ति. 4 कथंप्रकृत्यः तीर्थपतयः, त्रिभिमा॑नः संयुक्ताः सन्तः. 5 नायुक्तम्. 6 प्रवृत्तेः. 7 पुण्यरहितं कार. णम्, न पुण्यसहितं कारणमित्यर्थः. 8 लोके । ११) 1 विनाशे । १२) 1 तीर्थकरः. 2 अहो. 3 तीर्थकृत् । .
SR No.090136
Book TitleDharmaratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaysen, A N Upadhye
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year1974
Total Pages530
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size38 MB
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