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- साधुपूजाफलम् - 278) तीर्थे यद्भव्या भवजलनिधेरुत्तरीतुं तरण्डं
सम्यक्त्वं केचिद्विरतिमपरे देशतः सर्वतो ऽन्ये । अङ्गीकुर्वाणाः कुशलमतुलं कुर्वते कारयन्ते
तत्स्यानिःशेषं शुभपरिणतेस्तीर्थनिर्वाहकस्य ।। ९६ 279) इह हि गृहिणां निर्वाणाङ्गं विहाय विहायितं'
जिनपरिवः प्रौदं बाढं परं परिकीर्तितम् । न खल यदतो मुख्य मुष्मिन्नतीव कृतादरैः
कृतिभिर्रनिशं भव्या भव्यं भवाब्धितितीर्षया ॥ ९७ 280) ग्लानादीनां पुनरवसरे सीदतां क्वापि बाढं
यत्नादेयं स्वयमुरुतरं दापनीयाः परे ऽपि । काले दत्तं विपुलफलदं येन संपद्यते ऽदः सद्धान्यानामिव जलधरैः शुष्यतां मुंक्तमम्भः ॥ ९८
भव्य जीव जो तीर्थ में संसार समुद्र से पार करने के लिये नौकातुल्य सम्यग्दर्शन को कितने ही भव्य देशविरति को- श्रावक के धर्म को - तथा अन्य कितने ही भव्य संपूर्णविरति- महाव्रत रूप चारित्र - को ग्रहण करके अपने और पद के अनुरूप हितको करते व कराते हैं, यह सब तीर्थ का निर्वाह करनेवाले की शुभ परिणति का फल है ।। ९६ ॥
चूँकि यहाँ जिनेन्द्र देव ने गृहस्थों के लिये दान को छोडकर दूसरा कोई अतिशय प्रवृद्ध - पुष्ट - निर्वाण का कारण नहीं निर्दिष्ट किया है - उसे ही उन्होंने गृहस्थों के लिये प्रमुख निर्वाण का साधन बतलाया है, इसीलिये भाग्यशाली गृहस्थों को संसाररूप समुद्र से पार होने की इच्छा से निरन्तर उस प्रमुख दान कर्म के विषय में अतिशय आदरयुक्त रहना चाहिये ॥ ९७ ॥
___ जो रोगी व वृद्ध आदि मुनिजन कहों पर दुःख का अनुभव कर रहे हों उनको योग्य अवसर पर अतिशय प्रयत्न पूर्वक महान दान स्वयं देना चाहिये और अन्य भव्यों से भी दिलाना
९६) 1 यस्य तीर्थे. 2 देशविरति अणुव्रतं सर्वविरति महाव्रतम्. 3 सम्यक्त्वदेशविरतिसर्वविरत्यादि. समस्तं तीर्थनिर्वाहकस्य पुरुषस्य भवति । ९७) 1 जगति. 2 PD दानम्.3 जिनस्वामिभिर्वीतारागः. 4 कथित. 5 दाने. 6 पुण्यवद्भिः . 7 वारंवारम्. 8 भो भव्याः. १ भवितव्यम्. 10 तर्तुमिच्छया । ९८) 1 उत्कटम्2 एतद्दानम्. 3 मेघैः ।