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- धर्मरत्नाकरः
[४. ९१273) भव्यं वासः' इलाघनीयो निवासः शय्या वर्गा प्राज्यभोज्यं शुभाज्यम् ।
पात्रं पानं भेषजादिप्रधानं भक्त्या देयं सर्वसंधे ऽनिदानम् ॥ ९१ 274) यदात्मनो ऽतिवल्लभं जगत्यतीव दुर्लभम् ।
तदेव भक्तिभाजनैः प्रदेयमादृतै जनैः ॥ ९२ 275) धर्मकार्ये ऽपि ये व्याज कुर्वते वित्ततत्पराः ।
आत्मानं वञ्चयन्त्युच्चैस्तै नरा मूर्खशेखराः॥ ९३ 276) भो जना' भोजनं यावन्न न्यस्तं साधुभाजने ।
समग्रमग्रमस्तावद्भुज्यते स्वेच्छया कथम् ॥ ९४ 277) तीर्थस्य मूलं मुनयो भवन्ति मूलं मुनीनामशनासनादि ।
यच्छन्निदं धारयतीह तीर्थ तद्धारणं पुण्यतमं वरेण्यम् ॥ ९५
सुन्दर वस्त्र, प्रशंसनीय वसतिका, उत्तम शय्या - गादो आदि, देने के योग्य प्रचुर भोजन, पात्र, पीने योग्य वस्तु एवं औषध इत्यादि का दान सब संघ के लिये भक्तिपूर्वक विना निदान के - इस दान से मुझे स्वर्गादि की प्राप्ति हो, ऐसी इच्छा न करके - करना चाहिये ॥ ९१॥
भक्ति के भाजनभूत - भक्त - श्रावक जनों को ऐसे ही आहारादिक का दान आदरसे करना चाहिये जो कि अपने को अतिशय प्रिय व लोक में अत्यन्त दुर्लभ होता है ।। ९२ ॥
जो धन में आसक्त रहनेवाले मानव धर्म कार्य में भी छल - कपट करते हैं, वे मूर्ख शिरोमणि स्वयं अपने को ही धोखा देते हैं। ॥ ९३ ।।
हे भव्य जनो ! जब तक साधु रूपी पात्र में संपूर्ण उत्तम भोजन को नहीं स्थापित किया है, तब तक तुम स्वेच्छासे स्वयं भोजन कैसे करते हो ? ॥ ९४ ॥
मुनिजन तीर्थ के - धर्म के - मूल (प्रधान कारण) हैं और मुनियोंकी स्थितिका मूल कारण अन्न व आसन आदिक हैं । इसलिये जो श्रावक उन मुनियोंको अन्नादिक देते हैं वे उस तीर्थ को धारण करते हैं। इस प्रकार तीर्थ का धारण करना अत्यन्त पुण्यदायक और श्रेष्ठ है ॥ ९५ ॥
९१) मनोज्ञवस्त्रम्. 2 प्रधाना. 3 मनोज्ञ. 4 घृतम्. 5 भाजनम्. 6 दुग्धजलादिकम्. 7 दातव्यम् . 8 कर्मक्षयनिमित्तम् । ९२) 1 दानम्. 2 दातव्यम्. 3 आदरपूर्वकैः। ९३) मृषा. 2 असावधानाः । ९४) 1 मो लोकाः. 2 समस्तम् । ९५ 1 आहारआसनादि. 2 सन्. 3 तस्य तीर्थस्य. 4 श्रेष्ठम् ।