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________________ -४.९०] - साधुपूजाफलम् - 270) भोगारम्भपरिग्रहाग्रहवतां शीलं तपो भावना दुःसाध्या गृहमेधिनां धनवतां दानं सुदानं पुनः । यस्तत्रापि निरुद्यधो द्रमकधी रौद्रं समुद्रोपर्म संसारं सं कुतस्तरिष्यति नरो दुष्कर्मपापाकुलम् ॥ ८८ 271) प्रकृतिचपलं पुंसां चित्तं प्रगच्छदितस्ततः । कथमपि यदा पुण्यैर्यात विहायितसंमुखम् । भवति न तदा कालक्षेपः क्षमो विदुषामहो पुनरपि भवेत्तादृङ् नो वा चलं सकलं यतः॥ ८९ 272) प्राप्ते त्रये ये गमयन्ति कालं ते वेगगच्छत्तरिकाधिरूढाः । मूढा गृहीतुं प्रतिपालयन्ते रत्नाकरे रत्नमयत्नदृष्टम् ॥ ९० दान में उसका सदुपयोग नहीं किया करते हैं। इसका कारण जो समस्त प्राणिसमूह को जीतनेवाला मोहरूप सुभट है वह जयवन्त रहा है । ।। ८७ ॥ जो धनवान् गहस्थ पाँचों इन्द्रियों के विषय-भोग, आरम्भ और परिग्रह में आसक्त रहते हैं उनके लिये शील, तप व मैत्र्यादि भावनाएँ दुःसाध्य – दुर्लभ - होती हैं । ऐसे गृहस्थोंके लिये दान और वह भी सत्पात्र दान करना अशक्य होता है । जो द्रमकधी – रुपये पैसे में बुद्धि रखनेवाला कृपण - शील व तप आदि की तो बात दूर, किन्तु उस दान में भी उद्यमरहित होता है - उसके लिये उत्सुकतापूर्वक कुछ प्रयत्न नहीं करता है - वह दुराचरण रूप पाप से परिपूर्ण व समुद्र के समान अपार इस भयानक संसार को कहाँ से पार कर सकता है ? ॥८८॥ पुरुषोंका मन स्वभावतः चंचल होता है, इसीलिये वह इधर उधर दौडता है। यदि वह किसी प्रकार पुण्योदयसे दान के उन्मुख होता है तो फिर उस समय विद्वानोंको विलम्ब करना योग्य नहीं है । कारण यह कि जब यहाँ सब ही कुछ अस्थिर है तब फिर से वैसा संयोग मिलना संभव नहीं है ।। ८९ ॥ पात्र वित्त और चित्त इन तीनों के प्राप्त हो जाने पर भी जो कालक्षेप करते हैं - शीघ्र दान नहीं देते हैं - वे मूर्ख मानो वेग से जानेवाली नौका पर आरूढ हो कर रत्नों से भरे हुए समुद्र में विना प्रयत्न के ही देखे गये रत्न के ग्रहण करने की प्रतीक्षा करते हैं - तत्काल उसे नहीं ग्रहण करते हैं ॥ ९० ॥ ~ ८८) 1 PD ग्रहवताम. 2 दुःसाध्या. 3 तत्र दाने. 4 जडबुद्धिः लोभी वा। ८९) 1 दानसम्मुखं चित्तं भवति, D दानसुमुखं जातं चित्तं. 2 विलम्बो न करणीयः D करणीयः. 3 वा न भवेत्. 4 चपलं वा विनश्वरम् . 5 कारणात् । ९०) 1 चित्ते वित्ते पात्रे. 2 नौः जलतरिका ।
SR No.090136
Book TitleDharmaratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaysen, A N Upadhye
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year1974
Total Pages530
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size38 MB
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