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-धर्मरत्नाकरः -
[४. ८५267) वियोगेनायोगो' भवति विर्भवैश्चेद्विभविना
विना किंचित्कार्य रचितपरितापः परवशात् । वरं धर्मायासौं विमलयशसे तोषितपरः
प्रमोदाय स्वस्य॑ स्ववशविहितः साधितहितः ॥ ८५ 268) अनन्तगुणमक्षयं भवति रक्षितं साधुभिः
सुपात्रविनियोजित ननु परत्र धर्मार्थिनाम् । प्रयाति निधनं धनं सदनसंचितं निश्चितं
तथापि न धनप्रिया ददति मोहराजो बली ॥ ८६ 269) ददति सति कदाचिन्मूलनाशे ऽपि लोभात्
इह हि शतसहस्रं लाभसंभावनायाम् । ध्रुवबहुगुणलाभे नो परत्रार्थना
जयति जनसमूहं मोहयन् मोहमल्लः ॥ ८७ साधुओंको दे कर विना गिरे पडे संरक्षित व अविनश्वर रूप से उसका उपभोग किया करते हैं । इस प्रकार उन बुद्धिमानोंका धन नष्ट न हो कर भविष्य में भी बना रहता है ।। ८४ ॥
. यदि धनिकों के धन का नाश नहीं हुआ अर्थात् वह यदि उनके पास बना रहा तो वह धन विना किसी प्रयोजन के ही दूसरों को पीडा देनेका कारण व पराधीन होगा। जो वैभव धर्म और निर्मल लोगोंको सन्तुष्ट करता है वही वैभव योग्य है । ऐसा धन दाता के अधीन रहकर उसे आनंदित करता है वह उसके हित का कारण होता है ।। ८५॥
उत्तम पात्र में प्रयुक्त हुआ धर्माभिलाषी जनों का धन साधुजनों से संरक्षित हो कर पर भव में पूर्व की अपेक्षा अनन्त गुणी व अविनश्वर होता है, यह निश्चित है । तथा उसके विपरीत जो धन घर में ही संचित रहता है वह धन की ऐसी स्थिति होने पर नष्ट होता है। धनानुरागी जन सत्पात्र में उसका सदुपयोग नहीं करते हैं । इससे यही सिद्ध होता है कि मोहरूप राजा बलवान् है ॥८६॥ - लोक में लाखों के लाभ की संभावना के होने पर धनवान् मनुष्य लोभ के वशीभूत हो कर उस धन के समूल नष्ट हो जाने पर भी लाखों दे डालते हैं । परन्तु परलोक में निश्चित ही बहुत गुणों के लाभ की सम्भावना के होने पर वे उस धन को नहीं दिया करते हैं - पात्र
८५) 1 व्ययः. 2 विभूतिभिः सह. 3 संपदा युक्तानां पुरुषाणाम्. 4 धर्मकार्याय श्रेष्ठम्. 5 असो अयोगः. 6 आत्मनः । ८६) 1 रक्षितं धनम्, कैः साधुभिः. 2 अहो. 3 विनाशम्. 4 धनिन:. 5 न प्रयच्छन्ति. 6 मोहराज्ञः। ८७) 1 प्रयच्छन्ति. 2 लोके. 3 बहुतरं धनम्. 4 परत्र विषये. 5 धनिनः ।