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- साधुपूजाफलम् - 264) दुरापमिदमुच्चकैस्त्रयमवाप्य पुण्योदयात्
प्रमत्तसकलं जना न हि विलम्बितुं संगतम् । विलोक्य मुनिसंकुलं विमलधीनिधानं परं
विधानसहितो हितं बत विलम्बते को ऽपि किम् ॥ ८२ 265) त्यागो भोगो विनाशश्च विभवस्य त्रयी गतिः।
दै' यस्याये न विद्यते नाशस्तस्यावशिष्यते ॥ ८३ 266) दायादा आददन्ते दहति हुतवहीं वारनार्यों हरन्ति
स्तेना मुष्णन्ति भूपो ऽपहरति रटतां मोटयित्वा कृकाटिम् । मूढानां याति बाढं धनमिति निधनं धीधना धीधनानां साधूनामयित्वा ऽस्खलितमगलितं पालितं भुञ्जते ऽग्रे ॥ ८४
आहारादि सामग्री सरलता से प्राप्त नहीं होती, फिर यदि इस योग्य धन भी हुआ तो दान देने का विचार भी मन में पुण्योदय से ही प्रादुर्भूत होता है। दान के निमित संसाररूप समुद्र से पार करने के लिये पुल के समान हो कर जो कल्याण परंपरा की कारणभूत उपर्युक्त तीनों की प्राप्ति होती है वह किसी विरले ही पुण्यात्मा को हुआ करती है ॥ ८१॥
हे भव्यजनो ! पूर्व पुण्योदय से उन अतिशय दुर्लभ तीनों के प्राप्त हो जाने पर फिर प्रमाद के वशीभूत हो कर विलंब करना योग्य नहीं है। क्या कोई ऐसा निर्मलबुद्धि मनुष्य है जो उत्कृष्ट निधिके समान हितकारक मुनि को देखकर विधि को जानता हुआ भी इसके लिये विलम्ब करता है ? ॥ ८२ ।।
___ दान, उपभोग और नाश ये धन की तीन अवस्थाएँ होती हैं। जिस सत्पुरुष के यहाँ उस धन की त्याग और भोग ये दो प्रथम अवस्थाएँ नहीं हैं, उस के उस धन की नाश रूप तीसरी अवस्था ही शेष रह जाती है ।। ८३ ॥
मूों के धन को उनकी मृत्यु के पश्चात् जो कुटुम्बीजन नियमानुसार उसके अधिकारी होते हैं वे ग्रहण कर लिया करते हैं, कभी कभी उसको अग्नि भस्मसात् कर देती है, यदि व्यसनी हए तो वेश्याएँ उसे खा डालती हैं, अवसर मिलने पर चोर उसे चुरा लेते हैं, अथवा अपराधी प्रमाणित होनेसे उनके रोते चिल्लाते रहने पर भी गला दबा कर राजा उसका अपहरण करा लेता है। इस प्रकार उन मूों का धन पात्रदान के बिना यों ही अतिशय नाश को प्राप्त हो जाता है। किन्तु उसके विपरीत बुद्धिमान सत्पुरुष उसे आहारादि के रूप में बुद्धिमान
८२) 1 वित्तं चित्तं पात्रम्. 2 प्रकृष्टम्. 3 अहो । ८३)1 त्यागभोगौ. 2 त्रिषुमध्ये न(?)। ८४) 1 सापत्ना भ्रातरः.2 गहते. 3 अग्निः.4 वेश्यादयः. 5 चौराश्चोरयन्ति. 6 राजा गृह्णाति. 7 क्रन्दनं कुर्वताम् . 8 विनाशम.9 दातार:. 10 समर्पयित्वा. 11 पूर्णम् ।