SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 148
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ८२. - धर्मरत्नाकरः - 281) प्रत्तं' विपत्तावुपकारि किंचित् संपद्यते जीवितकल्पमल्पम् । पुंसः पिपासोः सुतरां मुमूर्षो रानीय पानीयमिवोपनीतम् ॥ ९९ 282) कालेन ता' एव पदार्थमात्राः प्रायः क्रियन्ते ऽसुमतां महार्घाः । स्वात्यामिवापो ऽपि पयोदमुक्ताः स्थूलामलाः शुक्तिमुखेषु मुक्ताः ।। १०० 283) प्रस्तावमासाद्य सुखाय सद्यः संपद्यते दुःखकरः पदार्थः । यूनां मुदायेन्दुरिवं प्रियाभियोगे वियोगे परितापहेतुः ॥ १०१ 284) यद्यन्यदा न क्रियते तथापि व्यापत्सु कार्य गुरुणादरेण । 5 अनादिदानं महते फलाय को ऽल्पेनं नो पुण्यमुपाददीत ॥ १०२ [ ४.९९ चाहिये । कारण यह कि योग्य काल में दिया हुआ दान विपुल फल को - धनादि वैभव को इस प्रकार देता है जिस प्रकार कि मेघों के द्वारा छोडा गया जल सूखते हुए उत्तम धान्य के - गेहूं आदि की फसल के - विपुल फल को देता है ॥ ९८ ॥ विपत्ति के समय दिया हुआ थोडा-सा भी दान जीवित देने के समान उपकारक होता है जिस प्रकार कि प्यास से पीडित हो कर मरने के इच्छुक हुए मनुष्य को ला कर दिया हुआ थोडासा भी जल उपकारक होता है ॥ ९९ ॥ समयानुसार वे थोडे-से भी पदार्थ प्राणियों के लिये अतिशय मूल्यवान इस प्रकार किये जाते हैं जिस प्रकार कि स्वाति नक्षत्र के समय मेघोंके द्वारा छोडा गया जल सीपों के मुखों में पड कर स्थूल व निर्मल मोतियों के रूप में अतिशय मूल्यवान् किया जाता है ॥ १०० ॥ दुःख को उत्पन्न करनेवाला भी पदार्थ योग्य अवसर को पाकर शीघ्र ही सुख के लिये होता है - सुखरूप परिणत हो जाता है । जो चन्द्र तरुण जन को प्रियाओं के वियोग में संताप का कारण होता है वही उनके संयोग समय में आनन्दका भी कारण होता है ॥ १०१ ॥ यदि अन्य समय में अन्नादि का दान नहीं किया जाता है तो न सही, पर विपत्ति के समय में तो उसे बड़े आदर से करना ही चाहिये। ऐसा करने से वह महान् फल को देता है । ठीक है - ऐसा कौन मनुष्य है जो थोडे-से अन्नादि दान से पुण्य का संग्रह नहीं करेगा ॥ १०२ ॥ ९९) 1 दत्तम्. 2 सत्याम्. 3 पुरुषस्य 4 तृषातुरस्य 5 मर्तुमिच्छो: मरणप्राप्तस्य 6 दत्तम् । १००) 1 पदार्थ मात्राः. 2 स्वातिनक्षत्रे. 3 जलानि 4 मुक्ताफलानि । १०१ ) 1 तरुणानाम्. 2 हर्षाय. 3 चन्द्र इव. 4 प्रियाभिः संयोगे सति. 5 सति । १०२ ) 1 आपत्कालेषु. 2 क्रियताम् 3 महता. 4 दानेन ।
SR No.090136
Book TitleDharmaratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaysen, A N Upadhye
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year1974
Total Pages530
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size38 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy