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________________ ७४ - धर्मं रत्नाकरः 253) लोभक्रोधाद्यैः प्राणनाशे ऽप्यसत्यं ये नो भाषन्ते ऽशेषभाषाविधिज्ञाः । लोकातिक्रान्तैः क्रान्तकान्तोरु सत्त्वाः सत्त्वस्ते वाचाऽप्येनसों दूरयन्ति ॥ ७१ 254) निपतितमपि किंचित् काञ्चनाद्यन्यदीय' विषविषधरकल्पं कल्पयन्त्यंप्यनल्पम् । विजितविषमलोभा ये जगज्जीतशोभा गृहमतिशुभभाजां ते भजन्ते यतीन्द्राः ॥ ७२ 4 255) रामाणां नयने पयोजजयिनी लोले पयोबुद्बुदौ सत्कान्ती कलशोपमौ घनकुचौ पीनौ च मांसार्बुदौ । ari पूर्णशशाङ्ककान्ति कलयेच्चर्मोपनद्धास्थिकं यः सद्भावनया सतां स भवनं पुण्यात् पुनीते मुनिः ।। ७३ [ ४.७१ स्थावर जन्तुओं से यह त्रैलोक्य व्याप्त हो रहा है । परन्तु जो शरीर के त्याग करने का प्रसंग आनेपर भी किसी प्रकार से भी अन्य प्राणी का घात नहीं किया करता है ऐसा अहिंसा महाव्रत का धारक मुनि, भला दूसरे देव के समान, कैसे मान्य - आराधनीय नहीं होता है ? ॥ ७० ॥ समस्त भाषाओं के विधान को जाननेवाले जो मुनि प्राणोंके नष्ट होनेपर कभी क्रोध लोभ आदिके वशीभूत हो कर असत्य नहीं बोलते हैं तथा लोक का उल्लंघन करनेवाले अपने लौकिक गुणों से जो उच्च मान्य पुरुषों को उल्लंघनेवाले हैं, ऐसे वे सत्य महाव्रत के धारक अपनी वाणी से भी प्राणियों को पाप से दूर किया करते हैं ॥ ७१ ॥ जो मुनिजन मार्ग आदि में गिरे हुए दूसरे के सुवर्ण आदि किसीपदार्थ को थोडीसी भी मात्रा में ग्रहण न कर के उसे विष अथवा सर्प के समान घातक समझते हैं और इसीलिये भयानक लोभ के जीत लेने से जो लोक में शोभाको प्राप्त हुए हैं ऐसे वे अचौर्य महाव्रत के धारक मुनिराज अतिशय भाग्यशाली महापुरुषों के घर को जाते हैं ॥ ७२ ॥ जो साधु कमल को जीतनेवाले स्त्रियों के चंचल नेत्रोंको अस्थिर जल बुद्बुदों के समान, घट के समान मनोहर, सघन व स्थूल स्तनों को मांसकी कीलों के सदृश और पूर्ण चन्द्रमा के समान कान्तिवाले मुखको चमड़े से ढकी हुई हड्डियों से व्याप्त देखता है, वह ब्रह्मचर्यं महाव्रत का धारक साधु सद्भावना से सत्पुरुषों के घरको उनके पुण्योदय से ही पवित्र किया करता है ॥ ७३ ॥ ७१) 1 ज्ञातार:. 2 जीवान्. 3 पापानि । ७२ ) 1 परकीयम्. 2 विचारयन्ति 3 प्राप्त. 4 अतिपुण्यवताम्. 5 आप्नुवन्ति । ७३) 1 द्वे नयने 2 कमलजयिनी 3 चञ्चले नेत्रे द्वे 4 जलबुबुदौ गणयति 5 मांसपिण्डी रूपौ वा सदृशौ पश्यति 6 मः मन्येत 7 पवित्रीकरोति ।
SR No.090136
Book TitleDharmaratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaysen, A N Upadhye
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year1974
Total Pages530
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size38 MB
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