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- साधुपूजाफलम् - 256) हरिहरप्रमुखं ससुरासुरं जितवतः स्वशरमुंवनत्रयम् ।
विजयिनं मदनस्य मदच्छिदं नमति कः सुमतिर्न मुनीश्वरम् ॥ ७४ 257) न वीतरागादपरो ऽस्ति देवो न ब्रह्मचर्यादपरं तपो ऽस्ति ।
. नाभीतिदानात्' परमस्ति दानं चरित्रिणो नापरमस्ति पूतम् ॥ ७५ 258) विश्वं येनं वशीकृतं कृतधियो ऽकृत्ये कृताः सोधमा
भाण्डाद्या विकृतीकृता नटभटाश्चित्राकृती कारिताः । तं निर्जित्य परिग्रहग्रहमहो ये ऽध्यात्मचिन्तारता
धन्यस्यैवं तपोधना गुणधना धामानि ते ऽध्यासतें ॥ ७६ 259) निर्मग्नलोकं गुरुलोभसागरं तरन्ति संतोषतरण्डकेन ।
न पादपद्मरिह सम निःस्पृहाः स्पृशन्ति ते पातकिनां तपोधनाः ॥ ७७
जिसने विष्णु और महादेव को आदि ले कर देव व दानवों सहित तीनों ही लोकों को अपने पुष्पमय बाणों के द्वारा जीत लिया ऐसे उस जगद्विजयी कामदेवके भी मान को मदित करने वाले काम विजेता मुनिराज को कौनसा निर्मल बुद्धिधारक मनुष्य नमस्कार नहीं करता है ? अर्थात् उस की सब ही विवेकी जन आराधना किया करते हैं ॥ ७४ ॥
लोक में वीतरागको छोडकर दूसरा कोई देव, ब्रह्मचर्य को छोडकर दूसरा कोई तप, अभयदान को छोडकर दूसरा कोई दान और चारित्र के परिपालक मुनिराज को छोडकर दूसरा कोई पवित्र प्राणी नहीं है ।। ७५ ॥
___ जिस परिग्रह रूप ग्रहने विश्वको अपने अधीन कर लिया, बुद्धिमानों को प्रयत्नपूर्वक अकृत्य में नियुक्त किया, भांड (बहुरूपिया) आदिकों को विकारयुक्त किया और श्रेष्ठ नटों (अथवा नट एवं सुभटों) को अनेक आकृति के धारक बना दिया, ऐसे उस परिग्रहरूप पिशाच को जीतकर जो आत्मध्यान में लीन हुए हैं ऐसे वे समीचीन गुणरूप धन के धारक तपोधन परिग्रह महाव्रती मुनिराज किसी पुण्यवान के ही घर में प्रवेश करते हैं । सामान्य जनों के लिये वे दुर्लभ हैं ॥ ७६ ॥
___जिस लोभ रूप महासमुद्र में समस्त लोक ही निमग्न हो रहा है उस अपार लोभरूप समुद्र को जो संतोष रूप नौका के द्वारा पार कर चुके हैं, ऐसे वे निःस्पृह तपोधन मुनिराज पापियों के घर को अपने चरण कमलों से स्पर्श नहीं करते हैं ॥७७ ॥
७४) 1 जेता. 2 स्वबाणैः. 3 कामस्य. 4 मदविनाशकम् । ७५) 1 न अभयदानात्. 2 पवित्रम् । ७६) 1परिग्रहप्रहेण. 2 अकार्ये. 3 नानाप्रकाराः. 4 पुण्यवतः मन्दिरे. 5 आश्रयन्ति तिष्ठन्ति ।७७) 1 गृहम् ।