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________________ -४. ५५ ] • साधुपूजाफलम् - 233) वहन्ति चेतसा द्वेषं वाचा गृह्णन्ति दूषणम् । अनम्रकायाः साधूनामधमा दर्शनद्विषः ॥ ५१ 2 3 234) इहैवानिष्टाः शिष्टानां मृता यास्यन्ति दुर्गतिम् । द्राघयिष्यन्तिं संसारमनन्तं क्लिष्टमानसाः ।। ५२ 235) इदं विचिन्त्यातिविविक्तचेतसा यमेव किंचिद्गुणमल्पमजस ।। विलोक्य साधुं बहुमानतः सुधीः प्रपूजयेत्पूर्णमिवाखिलैर्गुणैः ॥ ५३ 236) तथा लभेताविकलं' फलं जनो निजाद्विशुद्धात्परिणामतः स्फुटम् । अभीष्टमेतत् प्रतिमादिपूजने फलं समारोपसमर्पितं सताम् ॥ ५४ 237) काष्ठोपलादीन् कृतदेवबुद्धया ये पूजयन्त्यत्र विशिष्ट भावाः । प्राप्नुवन्त्येव शुभानि नूनं प्रत्यक्षसाधोः किमु पूजनेन ।। ५५ जो मन से साधुओं में द्वेष करते हैं, वचन से उनके दोषों का प्रतिपादन करते हैं और जो साधुओं को देखकर शरीरके द्वारा विनय को प्रकट नहीं करते हैं - उनकी वन्दना आदि नहीं करते हैं - वे नीच सम्यग्दर्शनके द्वेषी हैं ॥ ५१ ॥ जो सम्यग्दृष्टिओं को अनिष्ट ( मिथ्यादृष्टि ) मानते हैं, वे मन में क्लेशका अनुभव करते हुए मरणोत्तर दुर्गति में - नरक - तिर्यंच गति में जाते हैं और अपने संसार में अनन्त कालक बढाते हैं ॥ ५२ ॥ यह सोचकर बुद्धिमान् मनुष्य जिस साधु को कुछ थोडे से गुणोंसे संयुक्त व अल्प ( ही ) देखता है उसे वास्तव में वह समस्त गुणों में परिपूर्ण जैसा मानकर उसकी निर्मल अन्तःकरण से बहुत विनय के साथ पूजा करें ॥ ५३ ॥ ऐसा करने से भव्य जन अपने विशुद्ध परिणामों से निश्चयतः पूर्ण फल को प्राप्त करता है । तथा स्थापना निक्षेप के आश्रय से प्रतिमादिक पूजन में जो फल प्राप्त होता है वह सत्पुरुषों को अभीष्ट है ॥ ५४ ॥ जो विशिष्ट परिणामोंसे संयुक्त भव्य जीव यहाँ देवबुद्धि से - यथार्थ देव मानकरलकडी एवं पाषाण आदिसे निर्मित मूर्तियों की पूजा किया करते हैं वे निश्चयसे शुभ फलों को प्राप्त करते हैं । फिर भला प्रत्यक्ष में स्थित साधु की पूजा करने से क्या वह फल नहीं प्राप्त होगा ॥ ५५ ॥ 1 ५१) 1 मानसेन. 2 अविनीता: 3 शत्रवः । ५२ ) 1 दीर्घतरम् । ५३ ) 1 सामस्त्येन । ५४ ) 1 परिपूर्णम्. 2 समारोपणंन ।
SR No.090136
Book TitleDharmaratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaysen, A N Upadhye
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year1974
Total Pages530
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size38 MB
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