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________________ ६८ - धर्म रत्नाकरः - 227 ) इदेमशेषगुणान्तरसाधनं सकलसौख्यनिधानमबाधनम् । कुगतिसंगतिदूरनिवारणं निखिलदारुणदूषणदारणम् ॥ ४५ 228 ) अपगतो' ऽपि मुनिश्चरणाद् दृशि स्थिरतरः सुतरां परिपूज्यते । शुभंमतेर्महतां बहुमानतः परिणतिश्चरणे ऽपि भवेदिति ।। ४६ 229 ) साधुश्चारित्रहीनो ऽपि समानो नान्यसाधुभिः । भग्नो ऽपि शातकुम्भस्य कुम्भो मृत्स्नीघटैरिव ॥ ४७ 230) यद्यद् दुःखमास्वाम्यादनुष्ठानं न दृश्यते । केषांचिद् भावचारित्रं तथापि न विहन्यते ॥ ४८ 231) सातिचारचरित्राश्च काले त्रे किल साधवः । कथितास्तीर्थनाथेनं तत्तथ्य' कथमन्यथा ॥ ४९ 232) कालादिदोषात् केषांचिद्वयलीकानं विलोक्य ये । सर्वत्र कुर्वते ऽनास्थामात्मानं वञ्चयन्ति ते ॥ ५० [ ४. ४५ रहित तथा आत्मा को कुगति के नरक - पशु आदि दुर्गति के संग से बचाकर समस्त भयंकर दोषों को नष्ट करनेवाला है ॥ ४५ ॥ कोई मुनि चारित्र से भ्रष्ट हुआ है, परन्तु यदि वह सम्यग्दर्शन में अतिशय स्थिर है तो वह स्वयं ही पूजा जाता है। कारण यह कि उस निर्मलबुद्धि मुनि की महामुनियोंका अतिविनय करने से अथवा महापुरुषों ने बहुमान करनेसे चारित्र में भी आगे प्रवृत्ति हो सकती है ॥ ४६ ॥ जिस तरह सोने का घडा फूटने के बाद भी मिट्टी के अनेक ( अच्छे ) घडों के समान नहीं होता, उसी प्रकार जैन मुनि चारित्र से हीन होने पर भी अन्य अजैन साधुओं के समान कदापि नहीं होता है । वह उनकी अपेक्षा श्रेष्ठ ही होता है ॥ ४७॥ यदि आज दुखमा नामक पंचमकाल के प्रभावसे संयम का आचरण नहीं देखा जाता है तो भी किन्हीं साधुओं के भाव चारित्र नष्ट नहीं होता है । चारित्र के परिपालनका अभिप्राय तो रहता ही है ॥ ४८ ॥ इस पंचमकाल में साधुओं का चारित्र सदोष रहेगा, ऐसा जो तीर्थंकरने कहा है वह अन्यथा कैसे हो सकता है ॥ ४९ ॥ आदि के दोष से कुछ साधुओं में दोषों को देख कर जो भव्य सभी जैन साधुओं में अश्रद्धा करते हैं वे अपने आपको ही धोखा देते हैं, ऐसा समझना चाहिये ॥ ५० ॥ ४५) 1. दर्शनम्. 2 विदारकम् । ४६ ) 1 रहितः 2 कथंभूतः मुनिः, दृशि स्थिरतरः 3 द्रव्यलिङ्गी. 4 मुनेः । ४७ ) 1 परदर्शनयतिभिः 2 मृत्तिका । ४८ ) 1 पञ्चमकालविशेषात् । ४९)1 पञ्चमकाले, 2 युगादिदेवेन. 3 वचनम्. 4 सत्यम् । ५० ) 1 असत्यानि. 2 अनादरं निन्दां वा ।
SR No.090136
Book TitleDharmaratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaysen, A N Upadhye
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year1974
Total Pages530
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size38 MB
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