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________________ -४.४४] - साधुपूजाफलम् - 224) उक्तं च गुणभद्रैः यः श्रुत्वा द्वादशाङ्गीं कृतरुचिरथ तं विद्धि विस्तारदृष्टिं संजातार्थात् कुतश्चित्प्रवचनवचनान्यन्तरेणार्थदृष्टिः । दृष्टिः साङ्गाङ्गबाहयप्रवचनमवगायोच्छि ता यावगाढा कैवल्यालोकितार्थे रुचिरिह परमावादि गादेति रूढा ॥ ४२*१ 225 ) शुश्रूषा धर्मरागो जिनगुरुपदयोः पूजनाद्युद्यमश्च संवेगो' निर्विदुच्चैरसमशमरुपास्तिक्यलिङ्गानि येषाम् । शङ्काकाङ्क्षाद्य भावो जिनवचनरते धार्मिके बन्धुबुद्धिः श्रद्धानं सप्ततत्त्व्यामिति गुणनिधयः सशस्ते ऽपि पूज्याः ॥४३ 226) दर्शनं प्रथमकारणमुक्तं मुक्तिधामगमनै मुनिमुख्यैः । ज्ञानमत्र सति तावदवश्यं संभवेदपि न वा चरणं तु ॥४४ गुणभद्राचार्य कहते हैं-- जो द्वादशांग को सुनकर तत्त्वश्रद्धान होता है उसे विस्तार सम्यग्दृष्टि कहते हैं। आगम वचनों के विना सुने ही किसी अर्थ के ग्रहणमात्र से जो तत्त्वश्रद्धा उत्पन्न होती है वह अर्थ सम्यग्दर्शन है । आचारांगादिक बारह अङग और अङगबाह्य श्रुत के अवगाहन से जो सम्यग्दर्शन उत्पन्न होता है उसे अवगाढ सम्यग्दर्शन कहते हैं। केवलज्ञान से संपूर्ण पदार्थों के देखने पर जो उत्कृष्ट श्रद्धा होती है उसे परमावगाढ सम्यग्दर्शन समझना चाहिये ॥४२०१॥ आगम के सुनने की इच्छा, धर्म में अनुराग, जिनेश्वर और निर्ग्रन्थ गुरुचरणों की पूजा आदि में उद्युक्तता, संवेग' – संसारसे भीति, अतिशय निर्वेद - भव व भोगों से विरक्ति, अनुपम शमता - राग-द्वेष का अतिशय अभाव – और आस्तिक्य - दृढतर यथार्थ तत्त्वश्रद्धा; ये सम्यग्दर्शन के चिन्ह जिन के विद्यमान हैं, जो शंका व कांक्षा आदि दोषोंसे रहित हो कर जिनवचन के प्रेमी ऐसे धार्मिक जन में बन्धुबुद्धि रखते हैं तथा जिनकी जीवादिक सप्त तत्त्वोंमें दृढ श्रद्धा होती है। ऐसे गुणों के निधि स्वरूप वे सम्यग्दृष्टि भी पूज्य हैं ।। ४३ ॥ श्रेष्ठ मुनियों ने मोक्षरूप महल के प्राप्त करने में सम्यग्दर्शन को प्रमुख कारण कहा है । सम्यग्दर्शन के होने पर सम्यग्ज्ञान अवश्य उत्पन्न हो जाता है, परन्तु उस के होनेपर सम्यक् चारित्र उत्पन्न हो भी सकता है और नहीं भी उत्पन्न होता है । ४४ ॥ यह सम्यग्दर्शन इतर संपूर्ण गुणों की प्राप्ति का कारण, समस्त सुखोंकी निधि, बाधा ४२*१) 1 कृतरुचिः भवति. 2 पुरुषम्. 3 जानीहि. 4 विना. 5 व्याख्याताः कथयन्ति । ४३) 1 निर्वेग:. 2 उपशमयुक्तमुनिगणेषु. 3 सम्यग्दृष्टीनाम्. 4 सप्तानां भावः (समाहारः) सप्ततत्त्वी, तस्यां सप्ततत्त्व्यां विषये. 5 सम्यग्दृष्टयः । ४४) 1 कारणाय. 2 गणधरदेवैः जिन : वा. 3 दर्शने. 4 भवति।
SR No.090136
Book TitleDharmaratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaysen, A N Upadhye
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year1974
Total Pages530
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size38 MB
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