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-धर्मरलाकरः
[४. ३९220) जैनं प्रभावयति' शासनमङ्गिसार्थ
यो बोधयत्यनुपमः कृपया परीतः । त्यक्तक्रियः कथमसौ न नरस्तपस्वी
स्वाध्यायतों न हि तपो ऽस्त्यधिकं न कृत्य॑म् ॥ ३९ 221) सज्ज्ञानिनौ मूर्खमतीव साधुर्यः कष्टचेष्टानिरतं स्तुवीत ।
__ मागेजमन्धं स वदेत् सुदृष्टे स्तेजस्तमो व्याहरते समं सः ॥ ४० 222) एनांसि यो ऽघ्रिरजसा विनिहन्ति वाचा
मोहं व्यपोहति दृशापि पुनः पुनाति । संगेनं दुःखमपनीयं तनोति सौख्यं ।
ज्ञानी सतां स महितो ऽत्र महानुभावः ॥४१ 223) ज्ञााने सति भवत्येव दर्शनं सहभावतः ।
तेनोभयमिदं पूज्यं विभागे तु विशेषतः ॥ ४२
जो अनुपम मनुष्य जैनमत की प्रभावना किया करता है तथा दयासे युक्त होकर प्राणिसमूह को प्रबोधित करता है वह मनुष्य क्रिया से हीन होकर तपस्वी कैसे नहीं है ? वह तपस्वी है ही। ठीक है - स्वाध्याय से अन्य कोई तप और उससे अधिक कोई दूसरा कृत्य नहीं है ॥ ३९॥ ... जो साधु उत्तम ज्ञानियों को छोडकर कष्ट क्रिया करने में - कायक्लेश में तत्पर ऐसे मूर्ख साधु की स्तुति करता है वह मानो मार्ग जानने वाले को अन्धा तथा उत्तम आँखोंवालेके सेजको अन्धकार कहता है, ऐसा समझना चाहिये ॥ ४०॥
- जो अपनी चरणरज से पाप को नष्ट करता है, वाणी से मोह को दूर करता है, आँख से लोगों को पवित्र करता है तथा संगति से उनके दुःख को नष्ट कर के सुख को विस्तृत करता है वह ज्ञानी महानुभाव सज्जनों से पूजित होता है ॥ ४१ ॥
ज्ञान के होनेपर दर्शन होता ही है, क्योंकि वे दोनों साथही होते हैं । इसलिये सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान दोनों भी पूज्य हैं । उस ज्ञान और दर्शन को पृथक् मानकर विशिष्ट श्रुत ज्ञानावरण के क्षयोपशम से वे विशेष रूप से पूज्य हैं ॥ ४२ ॥
३९) 1 प्रकाशयति. 2 जीवसमूहम्. 3 संयुक्तः 4 त्यक्तव्यापारः. 5 आत्मचिन्तनतः, आगमचिस्तनत:. 6 करणीयम् । ४०) 1 सुज्ञानिनो मध्ये यो मूर्ख वन्दते'. 2 स्तौति. 3 शोभननेत्र पक्षे सम्यग्दर्शनम्. 4 कथयति । ४१)1 पापानि. 2 पादधूल्या. 3 विनाशयति. 4 स्फेटयति. 5 दृष्टया. 6 कृत्वा. 7 दूरीकृत्य. 8 विस्तारयति. 9 स पूजित: 10 लोके । ४२) 1 तेन कारणेन. 2 ज्ञान-दर्शनम्. 3 भेदे कृते सति विशेषतः पूज्यम् ।