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-- साधुपूजाफलम् -
(216) उज्जासयन्तो' जाड्यस्य पदार्थानां प्रकाशकाः । भास्करा इव दुष्प्रापाः साधवो विश्वपावनाः ।। ३५
217 ) निःशेषनिर्मलगुणान्तरसारहेती' संसारसागरसमुत्तरणैकसेतौ । ज्ञाने यतेः सति सतामतिपूजनीये दौर्जन्यमन्यगुणवीक्षणमेव मन्ये ॥ ३६
218) आलोकेनैव संतापं हरन्ते ऽतिमनोहराः । बुधप्रिय विलोक्यन्ते क्वापि पुण्यैदिंगम्बराः ।। ३७
(219) ज्ञानाधिको वरनरः स्वपरोपकारी
मुक्तक्रियो ऽपि मतमुन्नमयन् महात्मा । सुष्ठद्यतोSपि करणे नु सुशास्त्रशून्यः स्वार्थे प्रियः कुशलताविकलो वराकः || ३८
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जो सूर्य के समान जडता को - शैत्य व अज्ञानान्धकार को नष्ट करके पदार्थों को प्रकाशित करते हुए विश्व को पवित्र किया करते हैं ऐसे साधु लोक में दुर्लभ ही हुआ करते हैं ॥ ३५ ॥
अन्य समस्त निर्मल गुणों का श्रेष्ठ हेतु, संसाररूप समुद्र से पार करने के लिये अद्वितीय पुल के समान और सज्जनों के द्वारा अतिशय पूज्य ऐसा ज्ञानगुण यदि मुनि के पास विद्यमान है। तो फिर उसके अन्य गुणों का देखना – उनकी अपेक्षा करना - दुष्टता ही है, । ऐसा मैं समझता हूँ ॥ ३६ ॥
जो अतिशय मनोहर, विद्वत्प्रिय, मुनिराज अपने दर्शन से ही लोगों के संताप को किया करते हैं वे दिगम्बर मुनिराज पुण्योदय से ही कहीं पर दिखते हैं । अर्थात् ऐसे विद्वान् मुनिराजों का दर्शन दुर्लभ है ॥ ३७ ॥
जो ज्ञान में श्रेष्ठ उत्तम पुरुष अपना व अन्य का भी उपकार करनेवाला है, वह महात्मा क्रिया से - चारित्र से - हीन होता हुआ भी मत को - जैन शासन को - समुन्नत करनेवाला है इसके विपरीत जो करण में - क्रिया में - तो भली भाँति प्रयत्नशील है, परन्तु उत्तम शास्त्रज्ञान से रहित है वह बेचारा कुशलता से रहित हो कर स्वार्थ में ही प्रिय है - उसी में अनुरक्त रहता है ॥ ३८ ॥
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३५) 1 [ उज्जायन्तो ? ] उद्वासयन्तः. 2 जडतायाः शीतस्य । ३६ ) 1 समस्तगुणमध्यसार - कारणभूते. 2 व्रतिनः 3 दर्शनादि । ३७ ) 1 बुधनामा ग्रहः पण्डितरच. 2 यतयश्चन्द्राश्च । ३८ ) 1 स्वकीयमतम् उन्नतिं नयन् ।
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