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- धर्मरत्नाकरः - 212) ज्ञानोत्तमं किमपि किंचन दर्शनाढ्यं
पात्रं पवित्रितजगत्त्रयसच्चरित्रम् । किंचित्तपोगुणमयं द्विगुणं समग्रै
र्युक्तं गुणैः किमपि पूज्यमशेषमेवं ॥ ३१ 213) मिथ्यात्वध्वान्तविध्वंसे पटीयांसो महौजसः।
सुवृत्ताः कस्य नो पूज्याः स्युः सूर्या इव सूरयः ॥ ३२ 214) तारका इव भूयांसः स्वप्रकाशकरा नराः ।
प्रकाशयन्तस्तत्त्वानि दुर्लभा भास्करा इव ॥ ३३ 215) किंचित्प्रकाशपटवो बहवो हि पापाः
संतापका हुतवहा इव सन्ति लोके । प्रीणक्रियाः प्रकटिताखिलवस्तुतत्त्वाः सत्त्वाधिका शशधरा इव पुण्यलभ्याः ॥ ३४
रत्नत्रय से विभूषित पात्र तो प्राप्त होता है, परन्तु उनके चित्त में धर्मप्रेम और धन दोनों भी नहीं रहते । किन्हीं का चित्त तो होता है परन्तु तदनुकूल वित्त और पात्र दोनों भी नहीं होते हैं । किन्हीं के चित्त और पात्र होते हैं, परंतु इस योग्य वित्त नहीं होता है । तथा किसीके पास चित्त तो होता है पर वित्त और पात्र नहीं होते हैं । इस प्रकार सब सामग्री दुर्लभ हो है ॥३०॥
कोई पात्र ज्ञान से उत्तम, कोई दर्शन से पूर्ण और कोई जगत्त्रय को पवित्र करनेवाला सम्यक् चारित्र से युक्त होता है । कोई पात्र तपोगुण से युक्त, कोई दो गुणों से युक्त और कोई पात्र सर्व गुणों से परिपूर्ण होता है। ये सब ही पात्र पूज्य हैं ॥ ३१ ॥
___ सूर्य के समान मिथ्यात्वरूप अंधकार के नष्ट करने में अतिशय चतुर, महातेजस्वी • और उत्तम चारित्र के धारक आचार्य किसको पूज्य नहीं होते हैं ? ॥ ३२॥
ताराओं के समान अपनेको ही प्रकाशित करनेवाले पुरुष तो बहुत हैं, परंतु सूर्य के समान अन्य जीवादि तत्त्वों को प्रकाशित करनेवाले पुरुष दुर्लभ हैं ॥ ३३ ॥
लोक में थोडेसे प्रकाश को धारण करनेवाले पापी लोग तो बहुत हैं। ऐसे लोग अग्नि के समान संताप को उत्पन्न किया करते हैं। परंतु संपूर्ण वस्तुतत्त्व को प्रकाशित करते हुए वात्सल्य रखनेवाले धैर्ययुक्त लोग चन्द्र के समान पुण्यसे ही प्राप्त हुआ करते हैं ॥ ३४ ॥
३१) 1 बहुनोक्तेन. 2 समस्तमुनिगणम् । ३२) 1 प्रकाशवन्तो बुद्धिवन्तश्च. 2 प्रतापवन्तः. 3 वृत्ताकाराश्चारित्रयुक्ताश्च. 4 भवेयुः. 5 आचार्याः साधव इत्यर्थः । ३३) 1 बहवः । ३४) 1 प्रवीणा:. 2 अधिकक्रियावन्तः. 3 उत्तमपुरुषाः. 4 दैवयोगात् लभ्याः।