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- साधुपूजाफलम् -
207) न सन्ति येषु देशेषु साधवो धर्मदीपकाः । नामापि तेषु' धर्मस्य जायते न कुतः क्रिया ।। २६ 208) धर्म कुर्वन्ति रक्षन्ति वर्धयन्ति सुमेधसः ।
कथं न वन्द्या विश्वस्य साधवो धर्मवेधसः || २७ 209) करणकारणसंमतिर्भिस्त्रिधा वचनकायमनोभिरुपार्जयन् । कथमपीह शुभाशुभचेतसां मुनिजनो ऽजनि पूजनभाजनम् ॥ २८ 210) ज्यायःपात्रं' श्रेयश्चित्तं स्वायत्तं सद्हे वित्तम् । एल्लभ्यं पुण्यैः पूर्ण मुक्तिप्राप्तेर्यानं तूर्णम् ॥ २९ 211) केषांचिच्चित्तवित्तं भवति भुवि नृणां दानयोग्यं न पात्रं पात्रे प्राप्ते परेषां गुणवति' भवतो नोचिते चित्तवित्ते । स्याच्चित्तं नापरे द्वे द्वितयमपि भवेत् कस्यचिन्नैव वित्तं वित्तं कस्यापि नोभे॰ उभयमपि न तद्दुर्लभं यत्समग्रम् || ३०
जिन देशों में धर्म को प्रकाशित करनेवाले साधु नहीं रहते हैं, उन देशों में धर्म का जब नाम भी नहीं रहता है तब भला आचरण कहाँ से हो सकता हैं ? ॥ २६ ॥
धर्म के विधाता निर्मलबुद्धि साधु धर्म का आचरण, संरक्षण और वृद्धि भी किया करते हैं | फिर भला वे लोक के वन्दनीय कैसे नहीं होते हैं ? ॥ २७ ॥
कृत, कारित और अनुमत इन तीन के साथ वचन काय और मन से (पुण्य) उपार्जित करनेवाला मुनिजन यहाँ निर्मल व कलुषित चित्तवालों के लिये जिस किसी भी प्रकार से पूजा का पात्र हुआ है || २८ ॥
उत्तम पात्र, योग्य पुण्य, मन की स्वाधीनता और समीचीन गृह में संपत्ति का सद्भाव; यह सब सामग्री पूर्णरूप से भाग्यशाली मनुष्यों को पुण्योदय से प्राप्त होती है । इसे मोक्ष प्राप्ति के लिये शीघ्रगामी यान रथ आदि वाहन के समान समझना चाहिये ॥ २९ ॥
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इस संसार में कितनेही धर्मप्रेमी सज्जनों के मन में धर्मप्रेम और दान के योग्य धन भी रहता है, परन्तु उन्हें दान के लिये योग्य पात्रकी प्राप्ति नहीं होती । दूसरे किन्हीं को
२६) 1 देशेषु । २७ ) 1 सुष्ठुबुद्धियुक्ता: 2 त्रैलोक्यस्य. 3 धर्मकर्तारः । २८) 1 कृतकारितानुमतैः 2 मुनिः सन्. 3 जगति 4 भव्यानाम्. 5 अभूत् । २९ ) । उत्तमपात्रम्. 2 स्वाधीनम्. 3 चतुष्कम्. 4 कारणाय. 5 शीघ्रम् । ३० ) 1 पात्रे. 2 द्वे. 3 द्वे पात्रवित्ते. 4 पात्रं चित्तम् 5 द्वे पात्रचित्ते. 6 पात्रं चित्तम्. 7 न वित्तम्. 8 यस्मात् समस्तं दुर्लभम् ।