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- धर्म रत्नाकरः -
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202) मनसा वचसा दृष्टं' कायेनापि समर्ज्जत' ।
आत्मनीनं जनः सर्वः कथंचन करोत्यतः ।। २१
203) तस्मान्महान्तो गुणमाददन्तु दोषानशेषानपि संत्यजन्तु । गृह्णन्ति दुग्धं जलमुत्सृजन्ति हंसाः स्वभावः स निजः शुचीनाम् ॥ २२
204) गृह्णन्' नामापि नामेह कुर्वन् नामादिकं पुनः ।
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जिनस्य मन्ये मान्यः स्यात्तद्भक्तानां स्वभावतः ॥ २३
205) लेखवाहो ऽपि भूपस्य स्वामिभक्तैर्नियुक्तकैः' । मान्यते निर्गुणोऽप्येवं लिङ्गी जिनमतप्रियैः ॥ २४
[ ४.२१
206) सर्वज्ञो हृदये यस्ये वाचि सामायिक करे । धर्मध्वजो' जगज्ज्येष्ठो ग्रामणीर्गुणिनामसौ * ॥ २५
मानसिक चिन्तन -भी अनेक प्रकार के होते हैं । कितने जीव बाह्य आचरण से हीन दिखते हुये भी मनोवृत्ति की अपेक्षा निर्मल हो सकते हैं ॥ २० ॥
जो मन व वचन से देखा गया है वह शरीर से भी उपार्जित किया जाता है - शरीर की प्रवृत्ति भी वैसी ही हुआ करती है । इसलिये समस्त जन किसी न किसी प्रकार से आत्महित करता ही है ॥ २१ ॥
इसलिये जो महापुरुष है उन्हें सब दोषों को छोडकर गुणों को इस प्रकार ग्रहण करना चाहिए जिस प्रकार कि हंस पानी को छोड़कर दूध को ग्रहण किया करते हैं । सो योग्य भी है, क्योंकि जो निर्मल होते हैं उनका यह निजी स्वभाव होता है ॥ २२ ॥
लोक में जो जिनेश्वर के नामको ग्रहण करता है - उसका स्मरण करता है व नमस्कार आदि को भी करता है वह जिनभक्तों को स्वभावसेही मान्य होता है, ऐसा मैं समझता हूँ ॥ २३ ॥ जो राजाका लेख ले जानेवाला दूत होता है वह भी स्वामिभक्त राजपुरुषों के आदर का पात्र होता है । इसी प्रकार जिन को जिनमत में अनुराग है वे निर्गुण - सम्यग्दर्शनादि गुणों से रहित - भी साधु का आदर किया करते हैं ॥ २४ ॥
जिसके हृदय में सर्वज्ञ, वचन में सामायिक और हाथ में धर्म का ध्वज - पीछि - है वह लोक में श्रेष्ठ और गुणिजनों में अगुआ होता है || २५ ॥
२१) 1 कर्म. 2 उपार्जयता. 3 आत्महितम् । २२ ) 1 गृह्णन्तु. 2 निर्मलपुरुषाणाम् । २३ ) 1 नाम गृह्णन् सन्. 2 अहो. 3 नमस्कारादिकम् 4 वन्दनीय: 5 तस्य जिनस्य भक्तानाम् । २४ ) 1 नियोगिभिः । २५) 1 मुनीश्वरस्य 2 प्रतिलेखनः पिच्छि केत्यर्थः 3 अग्रणी :. 4 मुनिः ।