SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 127
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ -४. २०] - साधुपूजाफलम् - 197) साधूपदेशतः सर्वो धर्ममार्गः प्रवर्तते । विना तु साधुभिः सर्वा तद्वार्ता विनिवर्तते ॥ १६ ।। 198) दर्शनं बोधश्चरणं मुनिभ्यो नापरं मतम् । त्रयाच्च नापरं पूज्यं कथं पूज्या न साधवः ॥ १७ 199) क्वचित्त्रयं द्वयं वापि दर्शनार्थोद्यमः क्वचित् । पायो न निर्गुणो लिङ्गी स्तुत्यः सर्वस्ततः सताम् ॥ १८ 200) चित्रे ऽपि लिखितो लिङ्गी वन्दनीयो विपश्चिता' । निश्चेताः किं पुनश्चित्तं दधानों जिनशासने ॥ १९ 201) नानारूपाणि कर्माणि विचित्राश्चित्तवृत्तयः। मन्दा अपि बहिर्तृत्त्या विमलाश्चेतसा पुनः ॥ २० तथा पाप का निवारण करके उनकी होनेवाली हानि को भी रोकता है । अतएव वह उनको जिस प्रकार उपकार करता है उस प्रकार देव उनका उपकार नहीं कर सकते हैं अथवा तीर्थ, ज्ञान और देव प्राणियों का ऐसा उपकार नहीं कर सकते हैं जैसा की साधूसमूह धर्म की प्रेरणा और पाप के निवारणद्वारा उनका अतिशय उपकार करता है ॥ १५ ॥ सब धर्म का मार्ग साधु के उपदेशसे ही चालू रहता है। यदि साधु नहीं हो तो उनके विना धर्म की सब बात ही समाप्त हो जाती है ॥ १६ ॥ सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र ये तीनों उन मुनियों से कुछ अन्य नहीं माने गये हैं, - उनको रत्नत्रय स्वरूप ही समझना चाहिये , तथा इस रत्नत्रय से कोई अन्य वस्तु जगत में पूज्य नहीं है । इसलिये वे साधु पूज्य कैसे नहीं हैं ? अवश्य ही वे पूजने के योग्य हैं ।। १७ ॥ उपर्युक्त सम्यग्दर्शनादि में किसी के वे तीनों, किसीके दो और किसीका केवल सम्यग्दर्शन के लिये ही प्रयत्न रहता है। परंतु लिंगी -जिनलिंगका धारक साधु -प्रायः उक्त सम्यग्दर्शनादि गुणों से रहित नहीं होता है। अतः सत्पुरुषों को जिनलिंग के धारक सब ही साधुओं की स्तुति करनी चाहिये ॥ १८ ॥ चित्र में लिखा हुआ अचेतन भी साधु विद्वान् के द्वारा वन्दनीय होता है। फिर भला जो सचेतन साधु अपने चित्त को जिनागम या जैनधर्म में लगा रहा है उसका तो कहना ही क्या है ? अर्थात् वह तो सब के द्वारा वन्दनीय होना ही चाहिये ॥ १९ ॥ जिस प्रकार बाहय क्रियाएँ अनेक प्रकार की होती हैं उसी प्रकार चित्तकी वृत्तियाँ १६) 1 धर्म मार्गस्य । १८) 1 स्तवनाहः । १९) 1 पण्डितेन. 2 चेतनारहिताः. 3 धारयन् । २०) 1 कार्याणि.2 बहिराचरणे. 3 चित्तेन निर्मला मुनयः ।
SR No.090136
Book TitleDharmaratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaysen, A N Upadhye
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year1974
Total Pages530
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size38 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy