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- धर्मरत्नाकरः -
[४. १०191) अनघे संघक्षेत्रे श्रद्धामृतसिक्तमुप्तमल्पमपि ।
जनयति फलं विशालं वटबीजमिवात्रं वटवृक्षम् ॥१० 192) वित्तं वितीर्ण विस्तीर्णे पवित्रे पात्रसत्तमे ।
संघे संजायते ऽनन्तं गतमर्णमिवार्णवे ॥ ११ 193) समस्तः पूजितः संघ एकदेशे ऽपि पूजिते ।
विन्यस्तै मस्तके पुष्पे पूज्यो जायेत पूजितः ॥ १२ 194) गजबजस्येव हि दिग्गजेन्द्राः संघस्य मुख्या मुनयः प्रणीताः ।
तेभ्यः प्रदानं विधिना निदानं निर्वाणपर्यन्तसुखावलीनाम् ॥ १३ 195) साधवो जङ्गमं तीर्थं जल्पज्ञानं च साधवः । .
___ साधवो देवता मूर्ताः साधुभ्यः साधु नापरम् ॥ १४ 196) तीर्थ ज्ञानं स्वर्गिणो नोपकुयुः सत्त्वानित्थं साधुसार्थो यथोच्चैः ।
धर्माधर्मप्रेरणावारणाभ्यामर्थानौँ साधयन् बाधयंश्च ॥ १५
निर्दोष संघरूप खेत में श्रद्धारूपी अमृत से सींचा गया-श्रद्धापूर्वक दिया गया-दान प्रमाण में अल्प भी हो तो भी वह इस प्रकार विस्तृत फल को उत्पन्न करता है जिस प्रकार कि उत्तम खेत (भूमि) में जल से सींच कर बोया हुआ वट का बीज विशाल वटवृक्ष को उत्पन्न करता है ॥१०॥
विस्तीर्ण, विशुद्ध व योग्य पात्ररूप संघ में दिया हुआ धन समुद्र में गये हुये पानी के समान अनन्त बन जाता है ।। ११ ।।
संघ के एक विभाग की भी पूजा करने पर समस्त संघ पूजित होता है । ठीक है - मस्तक के ऊपर फूल के चढानेसे पूज्य व्यक्ति का समस्त ही शरीर पूजित होता है ॥ १२ ॥
- जैसे दिम्गजेन्द्र हाथियों के समूह के मुख्य माने जाते हैं, वैसे ही मुनिजन संघ के मुख्य माने जाते हैं । उन मुनियों को विधिपूर्वक दिया गया दान मुक्तिपर्यन्त समस्त सुखसमूहों का कारण होता है ॥ १३ ॥
___ मुनिजन मानो जंगम - चलते फिरते - तीर्थ व बोलनेवाले ज्ञान हैं। वे मुनि देवता स्वरूप हैं । लोक में उन मुनियों से उत्कृष्ट और दूसरा कोई भी नहीं है ॥ १४ ॥
ज्ञान चूँकि प्राणियों को संसाररूप समुद्र से पार कराता है, अतः तीर्थ उसे ही समझना चाहिये । साधुसमूह प्राणियों को धर्म में प्रेरित कर उनके अभीष्ट अर्थ को सिद्ध करता है
१०) 1 वपितम्. 2 पृथिव्याम् । ११) 1 दत्तम्. 2 उत्तमे. 3 उत्पद्यते. 4 P° ते ननं ग.5 जलम. 6 सागरे । १२) 1 धृते. 2 पूजाहः । १३) 1 हस्तिसमूहस्य. 2 मुनिभ्यः. 3 कारणम् । १४) 1 श्रुतज्ञानम् । १५) 1 देवा:. 2 उसकारं न कु:. ३ जोवान्. 4 करोति. 5 द्वाभ्यां कृत्वा. 6 कथयन्. 7 नाशयन् ।