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[ ४. चतुर्थो ऽवसरः ]
[ साधुपूजाफलम् ]
182) मुक्ताफलानि बहुशो ऽपि सुवृत्तभाञ्जि रन्धान्वितानि गुणपूर्त्यसहस्तनोति । गुण्यो गुणैरतितरां परिपूरयेत तद्वत्कृती स्वहृदयं प्रविभूषणाय ॥ १ 183) बलिबन्धनमालोच्य' युक्तं पात्रपरीक्षणम् ।
सो saश्यं बध्यते मुग्धो निःशीलेभ्यो ददाति यः ॥ २ . 184) मातापितृ कामदुघाप्रभृतीन् जयति॒ प्रसत्ति॑रिह यस्य॑ भविनां सहगामिफलः संघो ऽसौ मामधीत्पातु || ३
जैसे डोरा डालने के कार्य में समर्थ कोई कुशल कारीगर बहुतसे मोती अतिशय गोल होते हुए भी यदि वे छिद्रयुक्त हो तो वह उसमें डोरा डालता है, वैसे ही भव्य जीव सदाचारादि गुणों से युक्त होकर भी उसने अपना हृदय अधिक उज्ज्वल करने के लिये गुणों से अतिशय परिपूर्ण करना चाहिये ॥ १ ॥
बलिराजा के बन्धन को देखकर पात्रपरीक्षा के विना बलि राजा के अविवेकपूर्वक दान देने व इसी कारण उस के वामनरूपधारी - विष्णु के बन्धन में पडने का विचार करकेदाता को पात्र की परीक्षा करना उचित है । कारण कि जो मूर्ख निःशील - सदाचाररहित अपात्र - जनों के लिये देता है वह अवश्य बाँधा जाता है - कर्मबन्धन में पडता है ॥ २ ॥
जिस संघ की प्रसन्नता - वात्सल्यभाव - माता, पिता और कामधेनु आदि को जीतती है। अर्थात् उनसे भी वह भक्तों का अधिक हित करती है तथा जिसकी प्रसन्नता का फल जीव के
२ ) 1 विचार्य । ३ ) 1 प्रसन्नता. 2 यस्य संघस्य 3 सह. ... फल:. 4 पापात् ।
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