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________________ ५६ • धर्म रत्नाकरः - 181) भ्रूभङ्गानतभूमिपालमखिलं न प्रार्थये भूतलं दूरादेव पराकरोमि तमपि स्वर्गाङ्गना संगमम् । एतस्मिन् भवसागरे निपततामालम्बने मिला भक्तिः केवलमस्तु नाथ भवतः पादारविन्दद्वये ।। ५८ इति श्री-जयसेन-मुनि-चिरचिते धर्मरत्नाकरशास्त्रे आहारदानजिनगृह निर्मापणफलवर्णनो नाम तृतीयो ऽवसरः ॥ ३ ॥ 5 [ ३.५८ हे प्रभो ! केवल मेरे भौंहों की कुटिलता से जिसके भूमिपाल नम्र हुए हैं ऐसी अखिल भूमि की भी प्रार्थना मैं नहीं करना चाहता तथा स्वर्गीय देवांगना के उस संगम को भी मैं नहीं चाहता - उस से दूर ही रहना चाहता हूँ। मैं तो केवल आपके चरणारविन्दों की उस भक्ति को चाहता हूँ, जो इस संसार - सागर में पडने वाले जनों को निश्चल हस्तावलम्बन देती है ॥५८॥ इस प्रकार तृतीय अवसर समाप्त हुआ || ३ || ५८) 1 षट्खण्ड. 2 तिरस्करोमि 3 जीवानाम्. 4 भवतु. 5 P ° इति तृतीयोवसरः ।
SR No.090136
Book TitleDharmaratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaysen, A N Upadhye
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year1974
Total Pages530
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size38 MB
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