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________________ [४.४ - धर्मरत्नाकरः - 185) यद्भक्तिमगुणा भवन्ति भविनः सेव्याः सभाग्यैरपि यहानादिविधानतश्च नियतं निःशेषसौख्याकराः। यानानुगमाज्जगत्यपि सतां ध्येया भवेयुः सदा घोराघौषघनाघनैकपवनः संघः स जीयाच्चिरम् ॥४ 186) संघो ऽनघः स्फुरदनर्धगुणौघरत्न रत्नाकरो हितकरश्च शरीरभाजाम् । निःशेषसद्गुणनिवासमुनीन्द्रजन्मा. मान्यों गुरुस्त्रिभुवने ऽपि समो ऽस्य नान्यः ॥५ 187) श्रीसंघतो जगति तीर्थकुदप्यपार माहात्म्यभूमिरुदपादि यतो महद्वैः ।। माणिक्यशैलत इवोत्तमजातिरत्न तत्पूर्वमेव ननु को न नमस्यतीमम् ॥६ साथ भवान्तर में भी जाता है अर्थात् परलोक में भी जो जीव के कल्याण को करती है, वह मुनि आदिकों का संघ मेरा पाप से संरक्षण करे ॥ ३ ॥ ___जिसकी भक्ति करने में तत्पर भव्यजन स्वयं भी भाग्यशाली जनों के द्वारा आराधनीय होते हैं, जिसके लिये दानादि देनेसे भव्य निश्चय से संपूर्ण सुखों की खान बनते हैं, तथा जिसके ध्यान के अनुसरण से ध्यातागण इस जगत में स्वयं सज्जनों के ध्येय बन जाते हैं, ऐसा घोर पातकसमूहरूप मेघ को अनुपम वायु के समान उडा देनेवाला वह मुनि आदि का संघ दीर्घकाल तक जयवंत रहे ॥४॥ समस्त सद्गुणों के निवासस्थानस्वरूप मुनिराजों से उत्पन्न वह निर्दोष संघ चमकनेवाले अमूल्य गुगसमूहरूप रत्नों का समुद्र हो कर प्राणियों का हित करनेवाला है इस संघ को मान्य गुरु ही समझना चाहिये । इसके समान त्रैलोक्य में और दूसरा कोई नहीं है ॥ ५ ॥ महा समृद्धि के धारण करनेवाले उक्त संघ से अपार माहात्म्य की भूमिस्वरूप तीर्थकर इस प्रकार उत्पन्न होते हैं जिस प्रकार की माणिक्य पर्वत से उत्तम जातिवाला रत्न उत्पन्न होता है । इसलिये ऐसे संघ को पूर्व में ही नमस्कार कौन नहीं करता है ? सब ही उसे पूर्व में नमस्कार करते हैं ॥ ६ ॥ ४) 1 यस्य संघस्य. 2 गुणयुक्ता भवन्ति. 3 संसारिजीवाः. 4 भाग्यवन्तपुरुषैः. 5 यस्य संघस्य. 6 संघस्य.7 पृष्ठगामित्वात्. 8 आराध्या:.9 यः संघः पापौघमेघसमूहस्य पवनः । ५)1 उत्पादक:. 2 नमस्काराह:. 3 संघस्य । ६) 1 तीर्थकरत्वम्. 2 योनिः. 3 उत्पन्नः. 4 महद्धियुक्तात् श्रीसंघात.5 तस्मात्. 6 श्रीसंघम् ।
SR No.090136
Book TitleDharmaratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaysen, A N Upadhye
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year1974
Total Pages530
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size38 MB
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