SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 119
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ - आहारदानादिफलम् - 171 ) स पुमानर्थवज्जन्मा तस्यैवार्थो ऽपि सार्थक': । कुले जयध्वजो sir च येनाकारि जिनालयः ॥ ४८ 172) वैडूर्य सूर्य शशिकान्तमसारगल्ल नीलादिरत्न बहुभेदमयीं जिनार्चाम्' । निर्मापयन्ति सुधियः स्फटिकादिरयां पाषाणभेदमयसत्तनु मौत्मशक्त्या ॥ ४९ - ३. ५१ ] 173) रोक्मीं रीतिमयीं च लेप्यरचितां चित्रार्पितां मृण्मयीं* यद्वा राजनराजपट्टघटितां श्रीखण्डखण्डात्मिकाम् । श्रेष्ठां काष्ठमय गरिष्ठवपुषं शक्त्यान्यदीयामपि निर्माय प्रतिमां प्रतीतयशसो लोके भवन्त्यत्र ते ॥ ५० 174) कुसंगं दौर्भाग्यं दुरितसुरतं' कूटनिकृतिं 3 परायत्त वृत्ति परिभवभयक्लेशकुपथाम् । वियोगं योगं' वा प्रियरिपुजनैर्दुःसहतरं न ते ज्ञास्यन्ते' के समवसरणस्था इव जनाः ।। ५१ ५३' जिसने जिनमंदिर को निर्माण कराया है वह अपने कुल में जयध्वज समान है. अपने कुल की विजयपताका को फहरानेवाला है । ऐसे पुरुष का जन्म तथा धन भी सार्थक समझना चाहिए || ४८ ॥ निर्मल बुद्धि के धारक भव्य जीव अपनी शक्ति के अनुसार वैडूर्य, सूर्यकान्त, चन्द्रकान्त, मसारगल्ल और नीलम इत्यादि अनेक भेदयुक्त रत्नों की, स्फटिक की अथवा अनेक प्रकार के. विशेष पाषाणों की उत्तम आकृतिवाली प्रतिमा को निर्मार्पित करते हैं, तथा जो सुवर्ण की, पीतल की, वालु आदि से बनी हुई, चित्रमय और मिट्टी की, चांदी की, राजावर्त नामक मणि की ( यह मणि अलसी के पुष्प के समान वर्णवाला होता है), चंदन की लकडी की, तथा श्रेष्ठ काष्ठ से बनी हुई भी दृढ शरीरवाली जिनमूर्ति को अथवा शक्ति के अनुसार अन्य धातुकी भी मूर्ति को बनवाते हैं, वे यहाँ लोक में प्रसिद्ध यश से सुशोभित होते हैं ।। ४९-५० ॥ प्रतिमा निर्माण करनेवाले सज्जनों को समवसरण में बैठे हुए भव्य जीवों के समान ४८) 1 सफल: 2 पुमान् ३ कारितम् । ४९ ) 1 जिनप्रतिमाम् . 2 प्रतोली. 3 उत्तमशरीराम् । ५० १ 1 रुक्ममयीम्. 2 पित्तलमयीम्. 3 चित्रकारनिर्मिताम्. 4 मृत्तिका निर्मिताम् 5 चन्दनखण्डनिर्मापिताम् . 6 व्याख्यातयशोयुक्ताः. 7 ते पुरुषाः । ५१ ) 1 रागम 2 मायाम् 3 कुपथां वृत्तिम् 4 प्रियजनैः वियोगं रिपुजनैः सह संयोगम्. 5 न जानन्ति । सह
SR No.090136
Book TitleDharmaratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaysen, A N Upadhye
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year1974
Total Pages530
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size38 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy