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- धर्मरत्नाकरः -
[ ३. ५२175) अरे यदि समीहसे गमयितुं निशां शारदी
शशाङ्कधवलीकृताष्टदिशमङ्गनाभिः समम् । तदा शिरसि कुर्वता सुचिरमञ्जलिं याच्यसे
मनोमदनसूदनप्रतिकृतेः कृते यत्यताम् ॥ ५२ 176) कल्याणसंपदखिलापि वशीकृतोच्चै -
रुच्चाटितं स्वमनसो ननु वैमनस्यम् । विद्वेषितं सकलमप्यहितं च दूरात् ।
संस्तम्भितः सुकृतिमिहितविप्रयोगः ॥५३ 177) सत्यकारो' ऽर्पितः स्वर्गमय॑शर्म वशीकृतम् ।
शासनं सूचितं मुक्तौ पुंसा कारयता जिनम् ॥ ५४ । युग्मम् ।
दुर्जनसंगति, दुर्भाग्य, पाप में प्रेम, असत्य, कुटिलता, पराधीन जीवन, अपमान से उत्पन्न हुआ भय और दुःख का बुरा मार्ग, असह्य ऐसा प्रिय जन के साथ वियोग और वैरी जन के साथ संयोग आदि बाधाएँ प्राप्त नहीं होतीं ॥ ५१ ।।
हे मित्र! चन्द्र से आठ दिशाओं को शुभ्र करनेवाली शरद् ऋतु की रात्रि को यदि तू अपनी स्त्रियों के साथ आनंद से बिताना चाहता है तो मैं मस्तक पर हाथ जोडकर तुझ से यह याचना करता हूँ कि तू मनोमदनसूदन की- अन्तःकरण से काम को नष्ट कर देनेवाले जिनेन्द्र की -प्रतिमा को प्रतिष्ठित कराने का प्रयत्न कर ॥ ५२ ॥
जिन प्रतिमा का निर्माण करानेवाले पुण्यशाली सत्पुरुषों ने संपूर्ण कल्याणकारी संपत्ति को पूर्णतया अपने आधीन कर लिया है, अपने मन से वैमनस्य को दूर कर दिया है, संपूर्ण ही अहित के विषय में दूर से विद्वेष किया है अर्थात् उसने सर्वथा अपने हितको ही किया है, पुण्यवान भव्यों के होनेवाले अहित को नष्ट किया है, स्वर्ग और मनुष्य के सुख को अपने स्वाधीन करने के लिये मानो सत्यं कार दिया है, (व्यापारी लोग माल अपने को ही मिले इस हेतु से जो विक्रेता को मूल्य का कुछ भाग प्रथम ही दे कर माल को रोक लेते हैं, उसे सत्यं कार कहते हैं ।) तथा मुक्तिविषयक शासन को सूचना की है - वह शीघ्र ही मुक्ति का शासक होनेवाला है ।। ५३-५४॥
५२) 1 वाञ्छसि. 2 सार्धम्. 3 याचनां करोषि. 4 सर्वज्ञबिम्बनिर्मापणाय यत्नं कुरुताम् । ५३) 1 मनःकलुषता. 2 विनाशितम्. 3 Dविदूरात्. 4 सुकृतिभिः हितानां वियोग : दुरात् स्तम्भितो निरोधित इत्यर्थः। ५४) 1 व्यापारीवत् साई दत्ता स्वर्ग प्रति. 2 आज्ञा. 3 निर्मापयता ।