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- धर्मरत्नाकरः
167) जीर्णं जिनेन्द्रभवनं वसुधापुरन्ध्न्याः कर्णावतंस' व कालवशादतीव' । येsभ्युद्धरन्ति सुकृतैकविलासभाजस्तेषां तु कीर्तिरवनीजनकर्णपूरः ॥ ४४
168) धर्मः समुद्धृतस्तेन कुलकीर्तिर्नवीकृता । न्यरोधि' नारकः पन्था येन जीर्णोद्धृतिः कृता ॥ ४५ 169) पोतो रत्नप्रपूर्णो झगिति जलनिधौ' भिद्यमानो घृतस्तैर्देहः कुष्ठेन शीर्णः सुरवपुरुपमस्तैः कृतः प्राणभाजाम् । आकृष्यैवान्तकास्यादमृतमिव तरां पायिताः प्राणिनस्तै
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प्रासादो जिनानां पुनरपि नवतां प्रापितः शीर्यमाणः ॥ ४६
170) विश्व' विलङ्घ्य लोभांशाः प्रसरन्तो निवारिताः । तेन स्वं द्रविणं येन जीर्णे वेश्मनि योजितम् ॥ ४७
कर्ण
अतिशय पुण्यशाली जन पृथिवीरूप पुत्रवती स्त्री के कर्णफूल के समान कालवशात् जीर्णशीर्ण हुये जिनमंदिर का जीर्णोद्धार करते हैं, उनका यश भूमण्डलगत समस्त जन फूल के समान सुशोभित करता है ॥ ४४ ॥
[ ३. ४४
जिसने जिनमंदिर का जीर्णोद्धार किया है, उसने धर्म का उद्धार करके अपने वंशकी कीर्ति को नवीन किया है, तथा नरक के मार्ग को रोक दिया है- नरक में जाने से अपने को बचा लिया है ॥ ४५ ॥
जिन्होंने जीर्ण हुए जिनेश्वर के प्रासाद को पुनः नवीन किया टूटनेवाली रत्नों से भरी हुई नौका को झट से डूबने से बचा लिया है, गलित प्राणियों के शरीर को देव-शरीर के समान सुंदर बनाया है, अथवा यम के मुख से निकालकर उन्हें अतिशय अमृत ही पिलाया है ॥ ४६ ॥
४४) 1. कुण्डल इव. 2 अतीव जीर्णम्. 3 कुण्डल इव । ४५ ) ४६ ) 1 समुद्रे. 2 प्राणिनाम् 3 यमवदनात्. 4 नवीनं कारापितम् । ४७ )
में
है, उन्होंने समुद्र उन्होंने कुष्ठरोग से
उन्होंने प्राणियों को
जिसने अपने धन का सदुपयोग जीर्ण जिनमंदिर के उद्धार में किया है, उसने जगत को लांघकर आकाश में फैलनेवाले लोभांशों को रोक दिया है, ऐसा समझना चाहिये । तात्पर्य यह कि, महा लोभ को उत्पन्न करनेवाले धन को जिनमंदिर के निर्माण कार्य में लगाने से वह लोभ नष्ट होता है ॥ ४७ ॥
1 निवारितः 2 जीर्णोद्धरणम् । 1 संसारः ।