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________________ - ३. ४३ ] - आहारदानादिफलम् - 164) मुनिः कश्चित्स्थानं रचयति यतो जैनभवने विधत्ते व्याख्यानं यदवगमतो धर्मनिरताः । भवन्तो भव्यीघा भवजलधिमुत्तीर्य सुखिन स्ततस्तत्कारी' किं जनयति जने यन्न सुकृतम् ॥ ४१ 165) मर्त्यमस्तकमाणिक्यं महीमण्डलमण्डनम् । निकेतनं जिनेन्द्रस्य को ऽपि कारयते कृती ॥४२ 166) यावत्कृत्यमशेषितं सुकृतिभिस्तैरेवं सिद्धैरिव प्रध्वस्तं रविणेव संतततमः सर्व तथा दुष्कृतम् । तैरीलेखि शशाङ्कमण्डलगता स्वाङ्का प्रशस्तिः स्थिरा यैर्निर्मापितमर्हदीशभवनं स्वं वा यशो मूर्तिमत् ॥ ४३ (प्याऊ) व गुणसमूह का निवासस्थान, पवित्रभूमि - तीर्थक्षेत्र, तथा स्वर्ग व मुक्तिस्थान को जानेवाले पथिकों का कल्याणकारी अद्वितीय मार्ग-बीच का विश्रामस्थान है। विद्वानों ने दुर्गति में गिरनेवाले जनों को सहारा देनेवाला निश्चल हस्तावलम्बन कहा है ॥ ४० ॥ जिनमंदिर में चूंकि कोई भी जैन मुनि आ कर निवास करता है तथा धर्म का व्याख्यान करता है, जिसे जानने से भव्य जीवों के समूह धर्म में तत्पर होकर संसाररूप समुद्र को पार करते हुए शाश्वतिक सुख का अनुभव करते हैं । इसलिये जिनमंदिर का निर्माण करानेवाला गृहस्थ लोगों में कौनसा पुण्यकारक कर्म नहीं करता है? ॥ ४१॥ पुरुष मस्तक को भूषित करनेवाले चूडामणि रत्न के समान भूमण्डल को भूषित करनेवाले जिनमंदिर को कोई विरला ही पुण्यात्मा गृहस्थ निर्मापित करता है ॥ ४२ ॥ जिन महापुरुषों ने मूर्तिमान अपने यश के समान जिनालय का निर्माण कराया है उन्हीं पुण्यशाली महात्माओंने सिद्धों के समान समस्त कार्य को निःशेष किया है - वे सब कार्य को पूर्ण करके कृतकृत्य हो चुके हैं। उन्हींने समस्त पाप को इस प्रकार से नष्ट किया है, जिस प्रकार कि सूर्य विस्तृत अन्ध कार को नष्ट किया करता है। तथा उन्होंने चन्द्रमण्डलगत अपनी चिरस्थायिनी प्रशस्ति को भी लिख दिया है ॥ ४३ ॥ ४१) 1 अवधारणाक्रियमाणा धर्मनिरताः. 2 उत्पद्यमानाः सन्तः. 3 तरित्वा. 4 जैनभवनस्य कर्ता। ४२) 1 पुण्यवान् पुरुषः । ४३) 1 करणीयम्. 2 पूर्ण कृतम्. 3 सुकृतिभिः. 4 लिखापितं. 5 स्वकीयम् ।
SR No.090136
Book TitleDharmaratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaysen, A N Upadhye
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year1974
Total Pages530
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size38 MB
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