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________________ - धर्म रत्नाकरः - 160) तार्ण' च पार्णं च कुटीरमात्रं वासोमयं दारुमयं स्वशक्त्या । हर्म्य च स्थास्नु" च कारयन्ति ये ते भविष्यन्ति च मुक्तिभाजः ।। ३७ 161) ये चैत्यंचैत्यभवनागमपुस्तकानि निर्मापयन्त्यधममध्यमसत्तमानि । तेषां स्वकीयपरिणामविशुद्धिहेतोः सूरीश्वराः फलमुशन्ति भिदेलि न ॥ ३८ 162) चिन्तामणिकल्पलताकामदुघा ' विजयते यतो ऽचिन्त्यम् । फलतीयं प्रयतध्वं भावविशुद्धयै ततो भव्याः ॥ ३९ [ ३. ३७ 163) चन्द्रार्कवारितं तनुमतां धर्मस्य सत्रं परं प्राणित्राणसुधाप्रपा गुणगणक्षेत्रं पवित्रावनी । स्वर्निःश्रेयसदेशयात्रिकजनक्षेमैकमार्गों बुधैराम्नातं जिनवेश्म दुर्गतिपतद्धस्तावलम्बो ऽचलः || ४० जो भव्य श्रावक अपनी शक्ति के अनुसार घास अथवा पत्तों की झोंपडीस्वरूप, वस्त्रमय तंबूस्वरूप अथवा काष्ठस्वरूप चल या स्थिर जिनमंदिर को बनवाते हैं, वे भी मुक्ति को प्राप्त करनेवाले हैं ॥ ३७ ॥ जो हीन, मध्यम अथवा उत्तम जिनप्रतिमा, जिनमंदिर तथा सिद्धान्त ग्रंथों का निर्माण कराते हैं, उनको अपने परिणामों को विशुद्धि के कारण अविनाशी फल प्राप्त होता है। यह महान आचार्यों का उपदेश है || ३८ ॥ प्राणी जिस परिणाम विशुद्धि से चिन्तामणि, कल्पलता और कामधेनु के ऊपर विजय प्राप्त करता है, यह चूँकि अभीष्ट, अचिन्तनीय फल को प्रदान करती है, इसीलिए उस परिणाम विशुद्धि की प्राप्ति के लिये भव्य जीवों को सदा प्रयत्न करना चाहिये || ३९ ॥ वह जिनमन्दिर जगत में जब तक चंद्रसूर्य हैं, तब तक स्थिर रहकर प्राणियों को धर्म का दान करनेवाली उत्कृष्ट दानशाला, प्राणियों की रक्षा करनेवाली अमृत पानशाला ३७) 1 तृणजनितम्. 2 वृक्षपत्रजनितम्. 3 वस्त्रजनितम् 4 काष्ठजनितम् 5 चलं गम्यम्. 6 स्थिभूतम् । ३८ ) 1 जिनप्रतिमा 2 चैत्यालयम् 3 जधन्यमध्यमोत्कृष्टानि 4 जिना:. 5 कथयन्ति 6 कथंभूतं फलं न भिदेलिमं विनश्वरं, अविनश्वरं मोक्षफलमित्यर्थः । ३९ ) 1 इयं भावविशुद्धि: कर्त्री चिन्तामणिप्रभृतिकल्पलता कामदुधा । ४० ) 1 गमनशील ।
SR No.090136
Book TitleDharmaratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaysen, A N Upadhye
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year1974
Total Pages530
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size38 MB
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