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- आहारदानादिफलम् - 157) वास्तूक्तमूत्रविधिना प्रविधापयन्ति
ये मन्दिरं मदनविद्विषतश्चिरं ते । रोचिष्णुविश्वरमणीरमणीयभोगाः
सौख्याब्धिमध्यरचितस्थितयों रमन्ते ॥ ३४ 158) न्यक्कुर्वन् घनसारहारहिमवच्चन्द्रद्युतिस्वर्युति
रेतत्तावदकृत्रिमं सुरवरैः संभाव्यते कृत्रिमम् । इत्याश्चर्यकरं मनोभवरिपोर्ये कारयन्ते गृह
ते संसारसमुद्रसंभवसुधासारं प्रपास्य॑न्त्यलम् ॥ ३५ 159) लेप्यं तथेष्टकचितं च शिलामयं ये
ऽनेकान्तकेतननिकेतनमात्मशक्त्या । निर्मापयन्ति नृसुरेष्वचिरादुषित्वा यास्यन्ति ते शिवपुरी हतरोधकौघाः ॥ ३६
जो धास्तुशास्त्र में कही गई विधि के अनुसार काम के शत्रुभूत जिनेश्वर के मंदिर को बनवाते हैं वे कांति से सम्पन्न संपूर्ण स्त्रियों के साथ रमणीय भोगों को भोगते हुए सौख्यसमुद्र के मध्य में स्थित होकर दीर्घकाल तक क्रीडा किया करते हैं ॥ ३४ ॥
कपूर, मुक्ताहार, हिमवान् पर्वत, चन्द्रकान्ति और स्वर्ग की शोभा को तिरस्कृत करने वाले जिस कृत्रिम जिनमंदिर के विषय में देव अकृत्रिमता की सम्भावना करने लग जावें, ऐसे आश्चर्यजनक, मदन के वैरी स्वरूप जिनेश्वर के मंदिर को जो भव्य बनवाते हैं, वे भविष्य में संसाररूप समुद्र के मथन से उत्पन्न हुए श्रेष्ठ अमृत का इच्छानुसार पान करेंगे ॥ ३५ ॥
जो भव्य पुरुष अनेकान्तरूप ध्वज के धारण करनेवाले जिनेश्वर के मंदिरको अपनी शक्ति के अनुसार मिट्टी आदि से, ईंटों से अथवा पाषाण से निर्माण कराते हैं, वे मनुष्यों और देवों में निवास कर- उनके सुख को भोगकर-संसार में रोकनेवाले समस्त ज्ञानावरणादि कर्मों के समूह को नष्ट करते हुए शीघ्र ही मुक्ति नगरी को प्राप्त करनेवाले हैं ॥३६ ॥
३४) 1 P °सूक्तविधिना. शिल्पिकारशास्त्रोक्तविधिना. 2 कारयन्ति. 3 पुण्यवन्तः.4 मदनशत्रोः सर्वज्ञस्य. 5 मोक्षरमणी. 6 देदीप्यमानसंसारस्त्रीमनोज्ञभोगसौख्यसमुद्रमध्यकृतस्थानाः । ३५) 1 निराकुर्वन सन् . 2 कर्पूर. 3 स्वर्ग. D °स्वधुनी. 4 गृहं चैत्यालयम्. 5 अकृत्रिमं विचार्यते. 6 जिनस्य.7 सौख्यम् . 8 पामं करिष्यन्ति। ३६)1 ईंटकृतम. 2 जिनस्य. 3 कारयन्ति.4हतरोधका ज्ञानावरणादिकौघा यैस्ते हतरोधकोषाः ।