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- धर्मरत्नाकरः - 154) रत्नावलीविविधदारुमयः सुमेरुः
प्रासाद एष उत मेरुरयं जनानाम् । भ्रान्तिप्रदो जिनवरस्य विधाप्यते यै
स्तेषां महेन्द्रपदवी ननु किंकरीव ॥ ३१ 155) स्याद्वादकेतनस्योच्चैः कारयन्ति निकेतनम् ।
ये तेषां सकलो लोको निकामं किंकरायते ॥ ३२ 156) कि मेरोजिनहर्यमेतदुत वा नन्दीश्वरादागतं
लोकालोकगिरेः स्वयंप्रभनगाँदाहो कुलाहार्यतः। इत्थं भ्रान्तिकरं जनस्य विदुषो यं कारयन्ते जनास्ते लोलन्ति सदाप्सर कुचतटोत्संगेषु हारा इव ।। ३३
क्षेत्र जिन प्रतिमा है । तत्पश्चात् मुनि आर्यिका, श्रावक व श्राविकारूप अमूल्य चतुर्विध संघ यह तीसरा क्षेत्र है। चौथा क्षेत्र श्रेष्ठ निर्दोष आगम है। इन चारों क्षेत्रों में दानरूपी बीज बोना चाहिये। जैसे क्षेत्र में बीज के बोने से फल प्राप्त होता है वैसे ही इन चारों क्षेत्रों में दानरूप बीज के बोने से अनेक कल्याणरूपी फल प्राप्त होते हैं ॥ ३० ॥
___ जो धनिक जन अनेक रत्नसमूह तथा लकडियों से जिनेन्द्र का ऐसा सुन्दर सुमेरु बनवाते हैं, कि जिसको देखकर लोगों को यह रत्नमय सुमेरु पर्वत है अथवा जिनमंदिर [ है ऐसी भ्रांति उत्पन्न होती है । इस प्रकार का जिनमंदिर ] बनवाने से धनिकों को इन्द्र पदवी मानो दासी के समान प्राप्त होती है। तात्पर्य - जिनमंदिर बनवानेवाले इन्द्र से भी श्रेष्ठ होते हैं ॥३१॥
___ जो स्याद्वाद की पताका को धारण करनेवाले जिनेश्वर का भव्य महाप्रासाद बनवाते हैं, उनके अन्य सब लोग अतिशय दास बन जाते हैं ॥ ३२ ॥
- क्या यह मेरुपर्वत का जिनमंदिर है; अथवा [ वह नंदीश्वर द्वीप से, अथवा ] लोकालोक पर्वत से, अथवा स्वयंप्रभ नामक पर्वत से अथवा हिमवदादि कुलपर्वतों से आया है। ऐसी विद्वान पुरुषों के मन में शंका को उत्पन्न करनेवाले जिनमंदिर को जो भी भव्य बनवाते हैं वे सदैव अप्सराओं के स्तनतटों के बीच में हार के समान लोटते हैं ॥ ३३ ॥
३१) 1 रत्नखचित. 2 शोभनशङगः वा मर्यादा युक्तः. 3 जिनस्य प्रासादे. 4 अहो. 5 कथिते. 6 इन्द्र पदवी. 7 दासी इव । ३२) 1 जिनस्य. 2 गृहम्. 3 भव्याः. 4 अतिशयेन. 5 किंकरवत् आचरति । ३३) 1 अष्टमद्वीपात. 2 मानुषोत्तरगिरेः. 3 स्वयंप्रभपर्वतात्.4 षट कुलपर्वतात्. 5 पण्डितस्य जनस्य. 6 अप्सरसां देवकन्यानाम् ।