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________________ -३. ३०] - आहारदानादिफलम् - उक्तं च150) समागमाः सापगमाः सर्वमुत्पादि भगुरम् । कायः संनिहितापायः संपदः पदमापदाम् ॥ २८*१ 157) संकल्प्यं कल्पवृक्षस्य चिन्त्यं चिन्तामणेरपि । असंकल्प्यमसंचिन्त्यं फलं धर्मादवाप्यते ।। २८*२ 152) अत्याज्यं द्रविणं निकामकमिदं प्राणात्यये ऽपीश्वराः सत्यं चेत्परिवर्धयध्वंमपरं नेतुं यतध्वं भवम् । सुक्षेत्रेषु तदाखिलेषु वपतः श्रद्धाम्बुभिः सिञ्चतः श्रेयो ऽनन्तगुणं भविष्यति यतः काले बलं प्राप्नुतः॥ २९ - 153) एक क्षेत्रं त्रिभुवनगुरोर्मन्दिरं बिम्बमन्यत् संघो ऽनयः समभवदंतः सोऽपि भेदैश्चतुर्भिः। तुर्य वर्य प्रवचन मिति स्पर्शनं बीजमुप्त यद्वत्तद्वत्फलति निखिलामेषु"कल्याणमालाम् ॥ ३० कहा भी है - जो इष्ट पदाथों का संयोग है, वह वियोगसहित है । अर्थात् इष्ट पदाथों का वियोग अवश्य होनेवाला है। जो उत्पन्न होता है वह नश्वर होता ही है। यह शरीर अपायस अर्थात् वह नष्ट होनेवाला है तथा संपत्तियाँ आपदाओं का स्थान हैं - विपत्ति को उत्पन्न करनेवाली हैं ॥ २८*१ ॥ कल्पवृक्ष का फल संकल्प्य है – मुझे अमुक पदार्थ प्राप्त हो, ऐसी मन में इच्छा उत्पन्न होनेपर ही कल्पवृक्ष फल देता है। चिन्तामणि रत्न मन में चिन्तवन करनेपर ही इच्छित फल को देता है। परन्तु धर्म संकल्प से रहित व अचिन्तित फल को देता है । इसलिये धर्म उस कल्पवृक्ष से और चिन्तामणि से भी श्रेष्ठ है ऐसा समझना चाहिये ॥ २८*२ ॥ हे धनाढय भव्यजनो! यदि यह सत्य है कि प्राणनाश के समय में भी धन का त्याग करना अत्यन्त अशक्य है तो आप उसे वृद्धिंगत करते हुए दूसरे जन्म में ले जाने का प्रयत्न करें इसलिये उसे मस्त उत्तम क्षेत्रों में बो कर - जिन मंदिर, जिनप्रतिमा, जिनशास्त्र, मुनि, आर्यिका, श्रावक और श्राविका इन सप्त क्षेत्रों में देकर - श्रद्धारूप जल से सोंचिये । तब वह योग्य समय में फलित होकर पूर्वसे अनन्त गुणित कल्याण (सुख) को प्रदान करेगा, उसे आप प्राप्त कर सकते हैं ॥ २९ ॥ उपर्युक्त उत्तम क्षेत्रों में प्रथम क्षेत्र त्रैलोक्य गुरु (जिनेन्द्र देव) का मंदिर है। दूसरा २८*१ )1 संयोगा:. 2 वियोगसहिताः. 3 सविनाशः. 4 आपत्सहिताः । २९)। अतिशयं वा हितम्. 2 विनाशे. 3 भो ईश्वराः. 4 वद्धि प्रापयत. 5 यत्नं कुरुध्वम, 6 पुरुषस्य. 7 वपिष्यतः पुरुषस्य ।। गेहम. 2 चेत्यालयम्. 3जिनबिम्बम.4 आसीत्.5 संघ:.6 चतुर्थम्. 7आगमम्. 8 स्वीकारं दानं वा. 9 वपितम. 10 चैत्यालयादिषु क्षेत्रेषु ।
SR No.090136
Book TitleDharmaratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaysen, A N Upadhye
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year1974
Total Pages530
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size38 MB
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