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- आहारदानादिफलम् -
133 ) स्वर्णादिकं बहुविधं शतशो ऽपि दानं स्नानं सहस्रगुणतीर्थसमुद्भवं च । कामं करोतु विधिना पितृतर्पणं च नाहारदानसममेकमपि प्रभाति ॥ १७
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समयान्तरे' ऽप्युक्तं श्लोकत्रयम् - 134) कनकार्श्वतिला नागो रथो दासी मही गृहम् । कन्या च कपिला धेनुर्महादानानि ते दश ।। १७*१ 135) श्राद्धे च सुरनद्यां च गयायां चैव भारत ।
वापीकूपतडागेषु षट्सु धर्मो भ्रमान्वितः ॥ १७२ 136) नकुलो यज्ञवाटस्थं इदं वचनमब्रवीत् । नसक्तुप्रस्थतुल्यो हि यज्ञो बहुसुवर्णकः ।। १७*३
137 ) दानं हि सर्वव्यसनानि हन्तीत्याख्यायि' वाक्यं सकले ऽपि लोके । कल्याणमाला फललोलुपेन देयं स्वशक्त्या तदतन्द्रितेनं ॥ १८
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मनुष्य भले ही सैंकडो प्रकार से बहुत प्रकार के सुवर्ण आदि का दान करता रहे तथा वह सहस्र गुणों से युक्त तीर्थजल में भले ही स्नान करता रहे तथा वह विधिपूर्वक अतिशय पितृतर्पण - श्राद्ध - को भी करता रहे। फिर भी इनमें से एक भी उस आहारदान के समान सुशोभित नहीं हो सकता हैं ॥ १७ ॥
अन्यदर्शन में भी ये तीन श्लोक कहे गये हैं
हे भारत! तेरे लिये सुवर्ण, घोडा, तिल, हाथी, रथ, दासी, पृथ्वी, घर, कन्या और कपिला गाय ये दश महादान कहे गये हैं ।। १७*१॥
श्राद्ध, गंगा नदी, गया, वापी, कुआँ और सरोवर इन छह स्थानों में नाना भ्रान्ति है ॥ १७२ ॥
यज्ञवाट में गया हुआ नेवला यह बोला कि बहुसुवर्णक नामक यज्ञ सुवर्ण ब्राह्मणों को दिया जाता है - सत्तू के प्रस्थ (एक प्रकार का माप) समान नहीं है । तात्पर्य, बहुत सुवर्णादि के दान की अपेक्षा एक प्रस्थ सत्तू का देना कहीं श्रेष्ठ है ॥ १७*३ ॥
दान सर्व व्यसनों का नाश करता है, यह वाक्य " दाति निकृन्तति व्यसनानि इति
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धर्म है, ऐसा
. जिसमें बहुत
१७) 1 अतिशयेन. 2 शोभते । १७१) 1 परसमयदर्शने 2 घोटक. १७#२ ) 1 गजमायाम्. 2 भ्रमसंयुक्तः निश्चयरहितः धर्मो भवति न वा भवति । १७३) 1 यज्ञस्थाने स्थितः 2 सातूपाथेन समानः । १८) 1 उक्तम्. 2 वाञ्छ केन. 3 दानम्. 4 आलस्यरहितेन ।