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- धर्मरत्नाकरः
[३. १२128) चलो ऽकुलीनो ऽपि शठो ऽपि मूर्खः परं विशीलो ऽपि दुराशयो' ऽपि ।
उपेयते सर्वजनैः प्रदेष्टा यथा समुद्रः सरितां समूहैः ॥ १२ 129) कलाकलापं च कुलं च शीलं श्रुतज्ञतां चारुचरित्रतां च ।
प्रकाशयेच्छन्नगुणांश्च दानं पदार्थरूपाणि यथांशुमाली ॥ १३ 130) दृप्तारिपतच्छिदुरो गुहों यथा दोषान्धकाराभिदुरो रविर्यथा ।
श्रीचन्दनं तापनिरोधकं यथा दानं च दुनौतिपिधायकं तथा ॥ १४ 131) यादृशस्तादृशो वापि पुमांस्त्यागान्महामुनिः ।
कल्याणाशी मजल्पाकैश्चिन्तामणिरिवार्यते ॥१५ 132) दातृयाचकयोर्मेदः कराभ्यामेव दर्शितः ।
अर्थिनस्तिष्ठतो ऽधस्तात् सं दातुरुपरि स्थितः ॥ १६
शरीर का तेज, कान्ति, सज्जनता सत्य, व्रत, नियम, महाव्रत (आजन्म व्रत), आज्ञा और तीर्थ धर्मप्रवृत्ति इत्यादि गुणों के समूह दिये हैं ॥ ११॥
* दाता यदि चंचल, अकुलीन, कुटिल, मूर्ख, दुराचारी और दुष्ट अभिप्रायवाला हो तो भी जिस प्रकार नदियों के समूह समुद्र में जाते हैं उसी प्रकार सब लोग उसीके पास जाते हैं ।। १२॥
जैसे सूर्य पदार्थों के स्वरूप को प्रकाशित करता है वैसे ही दान अनेक कलाओं के समूह, कुल, शील, आगमज्ञान, निर्दोष चारित्र तथा अन्य भी प्रच्छन्न गुणों को प्रकट किया करता है ॥ १३ ॥ . जिस प्रकार कार्तिकेय उन्मत्त शत्रुओं के पक्ष को छेदता है, सूर्य रात के अंधकार को चारों तरफ से नष्ट करता है, उत्तम चंदन शरीर के संताप को नष्ट करता है उसी प्रकार दान दुर्नीति को नष्ट करता है ॥ १४ ॥
जिस किसी भी प्रकारका पुरुष दान के प्रभाव से महामुनि हो कर चिन्तामणि के समान अन्य भिक्षार्थी जनों के द्वारा कल्याणसूचक आशीर्वचनोंका उच्चारण करते हुए प्रार्थित होता है॥ १५॥
दाता और याचक के भेद को उन दोनों के हाथ ही दिखला सकते हैं। कारण कि याचक का हाथ नीचे और दाता का हाथ ऊपर रहता है ॥ १६ ॥
१२) 1 क्रूरचित्तः. 2 अङगीक्रियते. 3 दाता। १३) 1 कर्तृ. २ सूर्य: । १४) 1 दर्पसहितारिः. 2. षण्मुखः ईश्वरपुत्रो वा. 3 भेदकः. 4 आच्छादकम् । १५) 1 पुरुष:. 2 श्रेष्ठः वा महामुनिः वा. 3 कल्याणाशीर्वादप्रजल्पकैः. 4 प्रार्थ्यते । १६) 1 द्वाभ्यां हस्ताभ्याम्. 2 कर:. 3 दात पुरुषस्य.