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- धर्मं रत्नाकरः
स्वशक्तिः प्रसिद्धा व्याख्यायते138) भागद्वयी कुटुम्बार्थे संचयार्थे तृतीयकः । स्वरायो यस्य धर्मार्थे तुर्यत्यागी स सत्तमः । १९
139) भागत्रयं तु पोष्यार्थे कोशार्थे तु द्वयी सदा ।
. षष्ठं दानाय यो युङ्क्ते स त्यागी मध्यमो ऽधमात् ॥ २० 140 ) स्वस्वस्य यस्तु षड्भागान् परिवाराय योजयेत् । त्रीन् संचयेदशांश च धर्मे त्यागी लघु सः ॥ २१ 141 ) इतो हीनं दत्ते सति सुविभवे यस्तु पुरुषो
मतं तद्यत्किचित् खलु न गणितं धार्मिकनरैः । इमान् भागांस्त्यक्त्वा वितरति बुधो यस्तु बहुधा महासत्त्वस्त्यागी भुवनविदितो ऽसौ रविरिव ।। २२
[ ३. १९
दानम् " इस निरुक्ति के अनुसार [सब लोक में प्रसिद्ध है । इसलिये कल्याण समूह रूप फल की अभिलाषासे दाता को आलस्य छोडकर अपनी शक्ति के अनुसार ] दान देना चाहिये ॥ १८ ॥
प्रसिद्ध अपनी शक्ति का व्याख्यान किया जाता है - जो पुरुष अपने अर्जित धन का कुटुम्ब पोषण के लिये दो भाग, संचय के लिये तीसरा भाग तथा धर्म के लिये चौथा भाग नियत करता है, वह उत्तम दाता माना जाता है ॥ १९ ॥ जो अपनी आय में से सदा कुटुम्ब पोषणके और शेष छठे भाग को दानके लिये ] नियत करता है गया है ॥ २० ॥
लिये [ तीन भाग, संचय के लिये दो भाग वह दानी अधम की अपेक्षा मध्यम कहा
जो दाता अपने धन के दस भागों में से छह भाग परिवार पोषण के लिये, तीन भाग संचय के लिये तथा शेष दसवें भाग को धर्म के लिये नियोजित करता है वह दाता जघन्य माना जाता है || २१ ॥
जो पुरुष 'अतिशय वैभव के होनेपर भी इससे - एक दशांश से भी कम दान देता हैउसे धार्मिक जन दाता लोगों में कुछ भी नहीं गिनते हैं - उसे वे दाता नहीं समझते हैं । किन्तु जो विद्वान् उपर्युक्त भागों को छोड कर अनेक प्रकार से बहुत धन को देता है, वह दानी महात्मा लोक में सूर्य के समान प्रसिद्ध होता है ॥ २२ ॥
१९) I रक्षणार्थे. 2 स्वद्रव्यस्य 3 चतुर्थ: 4 उत्तमः दाता । २१ ) 1 स्वकीयद्रव्यस्य. 2 दशममंशम्. 3 जघन्यदाता । २२ ) 1 स्फुटम् 2 ददाति 3 दाता ।