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________________ -३. ४] - आहारदानादिफलम् - 119) आहारेण विना जगत्यभिमताः सिध्यन्ति नो षक्रियाः कार्याकार्यविचारणो ऽपि स चतुर्वर्गो भूशं सीदति । वर्णा निर्मलवर्णपूर्णभुवनाः सीमानं मुह्यन्त्यपि यान्त्येवं प्रलयं प्रभिन्ननियमास्तूर्णं तथैवाश्रमाः ॥ ३ 120) केचिन्मानसमौजसं कतिपये लेप्यं परे कावलं श्वाभा दुर्विचिकित्स्यसंततरुजाग्रस्ताः पुनक्रियम् । जीवा जन्मनि यान्त एव सकला नोकामणं कार्मणं । काङ्क्षन्त्येव जगन्ति जीवितमिवाहारं समस्तान्यपि ॥ ४ इक्षुरस का आहार लिया।अजितनाथादि इतर तेईस तीर्थकरों ने लोलुपता से रहित हो कर गाय के दूध से बने हुए परमान्न (खीर) का आहार ग्रहण किया है ।। २*१ ॥ श्लोक में कर्ताके रूप में जिनेन्द्रों को ग्रहण करना चाहिये। ___ लोक में (अभीष्ट) उपाहार के अभाव में छह आवश्यक अथवा असि मषि आदिक जीवन-निर्वाहकी छह क्रियाएँ सिद्ध नहीं हो सकती हैं। उसके विना यह कार्य है और यह अकार्य है, इस प्रकार के विवेक के साथ मनुष्यों में धर्म, अर्थ, काम और मोक्षरूप चार पुरुषार्थ भी निश्चयसे फलित न हो सकेंगे। निर्दोष कोतिसे जगतको व्याप्त करनेवाले ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य व शूद्र ये चार वर्ण भी अपनी मर्यादा को नष्ट कर देंगे। तथा विविध नियमोंवाले ब्रह्मचर्याश्रम, गृहस्थाश्रम, वानप्रस्थाश्रम और भिक्षुकाश्रम ये चार आश्रम भी शीघ्र नष्ट ही हो जायेंगे ॥ ३ ॥ कितने ही जीव - जैसे देव - मानसिक आहार को, कितने ही प्राणी (अण्डस्थ) औजस आहार को, कितने प्राणी-जैसे वृक्षलतादिक लेप्याहार को, तथा कितने प्राणी - जैसे मनुष्य व पशु - कवलाहार को, प्रतिकाररहित निरन्तर रोगग्रस्त नारकी जीव वैक्रियाहार को ग्रहण करते हैं। तथा जो जीव पूर्व शरीर को छोडकर उत्तर शरीर को धारण करनेके लिये जा रहे हैं वे नोकर्माहार व कर्माहार को ग्रहण किया करते हैं । तात्पर्य यह है कि लोक में सब ही प्राणी जैसे जीवित की इच्छा करते हैं वैसेही वे उसे स्थिर रखने के लिये आहार की भी इच्छा किया करते हैं ॥ ४ ॥ www rrrrrrrrrrrrr ३) 1 अभीष्टा:. 2 ऋषिः, यतिः, मुनिः, अनगार: 3 अतिशयेन खेदखिन्नो भवति. 4 मर्यादाम. 5 P"याम्तीव. 6 संयमाः 7 वानप्रस्थ, यति, गृही, ब्रह्मचारी. ४) 1 देवा मानसमाहारं वाञ्छन्ति, पक्षिणो ऽण्डकानि औजसं पक्षाधारं वाञ्छन्ति, वृक्षादि लेप्यं, परे मनुष्याः तिर्यञ्चोऽपि कवलाहारं वाञ्छन्ति गलन्ति, नारकाः कर्माहारं वैक्रियकं आहारं गलन्ति, तीर्थकरा नोकर्म भवान्तर गच्छता जीवकर्मणाम (?).2 नारकाः, 3 रोगेण. 4 जीवितव्यमिव ।
SR No.090136
Book TitleDharmaratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaysen, A N Upadhye
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year1974
Total Pages530
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size38 MB
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