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________________ - धर्मरत्नाकरः - • [३. ५121) नाशनायोः समो व्याधिर्भेषजं नाशनोपमम् । तत्पदेष्टुः परो नास्ति चिकित्साकुशलः कृती ॥५ 122) आहारदानमिदमस्तसमस्तदोष दातुर्विधाननिपुणस्य भवप्रमोषम् । कीर्त्यर्जनं च तनुते परमानुरागं व्यग्रां समग्रकमली कुरुते वरीतुम् ।। ६ 123) मित्राण्यरीनपि करोति करोत्यभीष्टं कष्टं विदरयति वारयते ऽप्यनिष्टम् । मार्तण्डमूर्तिरिव संतमसं समस्तं दानं निदानविकलं कुदृशो ऽपि दातुः ॥७ 124) आगांसि झपयति वृष्टिरिवाशु तापं विश्राणनं गुणगणै रहितस्य दातुः । पोद्भासयत्युरुगुणानसतो ऽपि साक्षात् पानीयपूर्णसरसीव सरोजषण्डान् ॥८ भूख के समान कोई रोग और आहार के समान कोई औषध नहीं है । तथा आहार देनेवाले गृहस्थ के समान दूसरा कोई पुण्यवान् (विद्वान्) रोग के परिहार में कुशल (वद्य) नहीं है ॥ ५॥ समस्त दोषों से रहित यह आहारदान दान की विधि में कुशल दाता के संसारविनाश के साथ उसको कीर्ति के उपार्जन को व धर्मविषयक उत्कृष्ट अनुराग को भी करता है। साथ ही वह उक्त दाता का वरण करने के लिये समस्त लक्ष्मी को व्याकुल भी कर देता है। उक्त दान के प्रभाव से दाता को सब प्रकार की लक्ष्मी स्वयं आकर प्राप्त होती है ॥६॥ मिथ्या दृष्टि भी दाता यदि भावसुख की अभिलाषारहित होकर दान देता है तो उसका वह दान शत्रुओं को भी मित्र बनाता है, अभीष्ट को पूर्ण करता है, कष्ट को दूर करता है, अनिष्ट को निवारण करता है, तथा सूर्यबिंब के समान समस्त अज्ञानरूप अंधकार को दूर करता है ॥ ७ ॥ ___सम्यग्दर्शनादि गुणों के समूह से रहित दाता के द्वारा दिया गया आहारदान उसके ५) 1 क्षुधाया:. 2 अशनसदृशम्. 3 D प्रदातुः तस्याहारस्य दातु: सकाशात् . 4 वैद्यः. ६) 1शुद्धम् 2 दानशीलस्य. 3 संसारमोषणम्. 4 आकुलाम्. 5 लक्ष्मीम्. 6 वरणयोग्याम्। ७) 1 मनोवाञ्छितम् . 2 निकटीकरोति (?). 3 निदानरहितम् 4 मिथ्यादृष्टिन : पक्षे अन्ध: 5 दात पुरुषस्य.८) 1 अपराधान्. 2 दानम. 3 अधिकगुणान्. 4 अविद्यमानान्. 5 पुष्करिणीव. 6 कमलसमूहान् ।
SR No.090136
Book TitleDharmaratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaysen, A N Upadhye
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year1974
Total Pages530
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size38 MB
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