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________________ [ ३. तृतीयो ऽवसरः ] [ आहारदानादिफलम् ] 116) द्वितीयं स्तूयते दानं सर्वतीर्थमतं यतः । द्विनां नैव तीर्थानि न तपांसि तपस्विनः ॥ १ 117) षण्मासमुत्तमधिर्यः समुपोष्यं वर्षे 3 वाञ्छन्ति नूनमशनानि विनाशनायाम् । तस्माद्विना न हि वपुर्न तपो विदा वा मोक्षो न तेन रहितो ऽभिमतं ततस्तत् ॥ २ 118) उक्तं च 7 आद्येनेक्षुरसो दिव्यः पारणाय पवित्रितः । अन्यैर्गोक्षीरनिष्पन्नपरमान्न॑मलाल से: : 11 R * ? तीर्थाधिपैरिति संबन्धः ॥ चूंकि दूसरे आहारदान के बिना न तो तीर्थों की - विविध संप्रदायों की - ही सम्भावना है और न उसके बिना तपस्वी के अनेक प्रकार के तपश्चरण भी स्थिर रह सकते हैं । अतएव सब ही तीर्थों को मान्य उस आहारदान की प्रशंसा की जाती है ॥ १ ॥ निर्मल बुद्धि मनुष्य वर्ष में छह मास उपवास करके तदनंतर पारणा के समय आहार की इच्छा करते हैं। आहार के विना चूंकि शरीर की स्थिति नहीं रहती, तप नष्ट होता है, ज्ञान भी नष्ट हो जाता है, तथा उसके विना मोक्ष की भी प्राप्ति का संभव नहीं है । इसलिये वह आहारदान आवश्यक माना गया है ॥ २ ॥ कहा भी है- पहले आदिनाथ जिनेश्वर ने पारणा में इक्षुरस को पवित्र किया, अर्थात् १) 1 अन्नदानम्. 2 कथ्यते. 3 सर्वमार्गमतम्, 4 तस्यान्नदानस्य 5 पन्थानः । २ ) 1 [ बुद्धयः ] 2 उपवासं कृत्वा 3 क्षुधायाम्. 4 अशनात्. 5 ज्ञानम् 6 अशनेन श्रेष्ठज्ञानेन वा. 7 अन्नदानम् । २०१ ) 1 आदिनाथेन. 2 आहार 3 पायसः क्षीरि: 4 अलोभैः ।
SR No.090136
Book TitleDharmaratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaysen, A N Upadhye
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year1974
Total Pages530
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size38 MB
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