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कारिका २६,२७]
देवागम हेतु आदिसे अद्वैत-सिद्धि में द्वैतापत्ति हेतोरद्वैत-सिद्धिश्चेद्वैतं स्याद्धेतु-साध्ययोः। हेतुना चेद्विना सिद्धिद्वैतं वाङ्मावतो न किम् ॥२६॥
'( इसके सिवाय यह प्रश्न पैदा होता है कि अद्वैतकी सिद्धि किसी हेतुसे की जाती है या बिना किसी हेतुके वचनमात्रसे ही ?उत्तरमें ) यदि यह कहा जाय कि अद्वैतकी सिद्धि हेतुसे की जाती है तो हेतु ( साधन ) और साध्य दोकी मान्यता होनेसे द्वैतापत्ति खड़ी होती है-सर्वथा अद्वैतका एकान्त नहीं रहता-और यदि बिना किसी हेतुके ही सिद्धि कही जाती है तो क्या वचनमात्रसे द्वैतापत्ति नहीं होती ?–साध्य अद्वैत और वचन, जिसके द्वारा साध्यकी सिद्धिको घोषित किया जाता है, दोनोंके अस्तित्वसे अद्वैतता नहीं रहती। और यह बात तो बनती ही नहीं कि जिसका स्वयं अस्तित्व न हो उसके द्वारा किसी दूसरेके अस्तित्वको सिद्ध किया जाय' अथवा उसकी सिद्धिकी घोषणा की जाय । अत: अद्वैत एकान्तकी किसी तरह भी सिद्धि नहीं बनती, वह कल्पनामात्र ही रह जाता है।'
द्वैतके विना अद्वैत नहीं होता अद्वैतं न विना द्वैतादहेतुरिव हेतुना । संज्ञिनः प्रतिषेधो न प्रतिषेध्यादृते क्वचित् ॥२७॥ '( एक बात और भी बतला देनेकी है और वह यह कि ) द्वैतके बिना अद्वैत उसी प्रकार नहीं होता जिस प्रकार कि हेतुके बिना अहेतु नहीं होता; क्योंकि कहीं भी संज्ञीका-नामवालेकाप्रतिषेध प्रतिषेध्यके बिना—जिसका निषेध किया जाय उसके अस्तित्व-बिना-नहीं बनता। द्वैत शब्द एक संज्ञी है और