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समन्तभद्र-भारती [परिच्छेद २ अनन्त भेदोंको लिये हुए हैं उनका वह भेद-प्रभेद नहीं बनता और न क्रियाओंका चलना-ठहरना, उपजना-विनशना, पचानाजलाना, सकोडना-पसारना, खाना-पीना और देखना-जानना आदि रूप कोई विकल्प ही बनता है; फलतः सारा लोक-व्यवहार बिगड़ जाता है। ( यदि यह कहा जाय कि जो एक है वही विभिन्न कारकों तथा क्रियाओंके रूपमें परिणत होता है तो यह कहना ठीक नहीं है; क्योंकि ) जो कोई एक है—सर्वथा अकेला एवं असहाय है-वह अपनेसे ही उत्पन्न नहीं होता। उसका उस रूप में जनक और जन्मका कारणादिक दूसरा ही होता है, दूसरेके अस्तित्व एवं निमित्तके बिना वह स्वयं विभिन्न कारकों तथा क्रियाओंके रूपमें परिणत नहीं हो सकता।
__ कर्म-फलादिका कोई भी द्वैत नहीं बनता कर्म-द्वैतं फल द्वैतं लोक द्वैतं च नो भवेत् । विद्या विद्या-द्वयं न स्याद्वन्ध-मोक्ष-द्वयं तथा॥२५॥
'( सर्वथा अद्वैत सिद्धान्तके माननेपर ) कर्म-द्वैत--शुभअशुभ कर्मका जोड़ा, फल-द्वत—पुण्य-पापरूप अच्छे-बुरे फलका जोड़ा और लोक-द्वैत-फल भोगनेके स्थानरूप इहलोकपरलोकका जोड़ा-नहीं बनता । ( इसी तरह ) विद्या-अविद्याका द्वैत ( जोड़ा ) तथा बन्ध-मोक्षका द्वैत ( जोड़ा ) भी नहीं बनता। इन द्वैतों( जोड़ों )मेंसे किसी भी द्वैतके माननेपर सर्वथा अद्वैतका एकान्त बाधित होता है। और यदि प्रत्येक जोड़ेकी किसी एक वस्तुका लोपकर दूसरी वस्तुका ही ग्रहण किया जाय तो उस दूसरी वस्तुके भी लोपका प्रसंग आता है; क्योंकि एकके बिना दूसरीका अस्तित्व नहीं बनता, और इस तरह भी सारे व्यवहारका लोप ठहरता है।'