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समन्तभद्र-भारती [ परिच्छेद १ यदि अत्यन्ताभावका लोप किया जाय—एक द्रव्यका दूसरे द्रव्यमें सर्वथा अभाव है, इसको न माना जाय तो एक द्रव्यका दूसरेमें समवाय-सम्बन्ध (तादात्म्य) स्वीकृत होता है और ऐसा होनेपर यह चेतन है, यह अचेतन है इत्यादि रूपसे उस एक तत्त्वका सर्वथा भेदरूपसे कोई व्यपदेश ( कथन ) नहीं बन सकता।'
अभावैकान्तकी सदोषता अभावैकान्त-पक्षेऽपि भावाऽपह्नव-वादिनाम् । बोध-वाक्यं प्रमाणं न केन साधन-दूषणम् ॥१२॥
'यदि अभावकान्तपक्षको स्वीकार किया जाय—यह माना जाय कि सभी पदार्थ सर्वथा असत्-रूप है—तो इस प्रकार भावोंका सर्वथा अभाव कहनेवालोंके यहाँ ( मतमें ) बोध ( ज्ञान ) और वाक्य ( आगम ) दोनोंका ही अस्तित्व नहीं बनता और दोनोंका अस्तित्व न बननेसे ( स्वार्थानुमान, परार्थानुमान आदिके रूपमें ) कोई प्रमाण भी नहीं बनता; तब किसके द्वारा अपने अभावैकान्त पक्षका साधन किया जा सकता और दूसरे भाववादियोंके पक्षमें दूषण दिया जा सकता है ?--स्वपक्ष-साधन और परपक्ष-दूषण दोनों ही घटित न होनेसे अभावैकान्तपक्षवादियोंके पक्षकी कोई सिद्धि अथवा प्रतिष्ठा नहीं बनती और वह सदोष ठहरता है; फलतः अभावैकान्तपक्षके प्रतिपादक सर्वज्ञ एवं महान् नहीं हो सकते।'
उभय और अवक्तव्य एकान्तोंकी सदोपता विरोधानोभयैकात्म्यं स्याद्वाद-न्याय-विद्विषाम् । अवाच्यतैकान्तेऽप्युक्तिर्नाऽबाच्यमिति युज्यते ॥१३॥ '( भावैकान्त और अभावैकान्त दोनोंकी अलग-अलग