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समन्तभद्र-भारती
संयोगादि सम्बन्धरूप न होकर कथञ्चित् अविभ्राड्भावसम्बन्ध ( तादात्म्य) रूप है । वस्तुका कोई भी धर्म उसके शेष धर्मोसे न सर्वथा भिन्न है और न सर्वथा अभिन्न । सभी धर्म परस्पर मैत्रीभावके साथ वस्तुमें वर्तमान हैं और वे सभो वस्तुकी आत्मा ( स्वरूप ) हैं । इस प्रकारके सहअस्तित्वात्मक सम्बन्धको अविष्वग्भावसम्बन्ध कहते हैं । वस्तु सत्सामान्यकी अपेक्षासे एक होती हुई भी धर्म-धर्मीके भेदसे अनेकरूप भी है । अथवा यों कहें कि वह न सर्वथा एक है और न सर्वथा अनेक है, अपितु एकानेकात्मक जात्यन्तररूप है ।
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कारिका १०८ में उस शङ्काका समाधान प्रस्तुत है जिसमें कहा गया है कि जैन दर्शन में एकान्तोंके समूहका नाम अनेकान्त है और एकान्तको मिथ्या (असत्य) माना गया है। अतः उनका समूह (अनेकान्त) भी मिथ्या कहा जायेगा | अनेक असत्य मिलकर एक सत्य नहीं बन सकता । इस लिए उक्त एकान्तसमुच्चयरूप अनेकान्तको जो ऊपर वस्तु कहा गया है वह सम्यक् नहीं है ? इस शङ्काका समाधान करते हुए ग्रन्थकार कहते हैं कि निरपेक्ष एकान्तोंके समूहको यदि मिथ्या कहा जाता है तो वह हमें इष्ट है; क्योंकि स्याद्वादियों के यहाँ वस्तुमें निरपेक्ष एकान्तता नहीं है । स्याद्वादी सापेक्ष एकान्तको स्वीकार करते तथा उनके ही समूहको अनेकान्त मानते हैं, निरपेक्ष एकान्तोंके समूहको नहीं । उन्होंने स्पष्टतया निरपेक्ष नयों ( एकान्तों ) को मिथ्या ( असत्य ) और सापेक्षोंको वस्तु ( सम्यक् - सत्य ) कहा है, क्योंकि वे ही अर्थक्रियाकारी हैं ।
कारिका १०६ में वाचकके स्वरूपको भी स्याद्वाददृष्टिसे व्यवस्था की गई । जो विधिवाक्यको केवल विधिका और निषेधवाक्यको केवल निषेधका नियामक मानते हैं उनकी समीक्षा करते हुए कहा गया है कि चाहे विधिवाक्य हो, चाहे निषेधवाक्य, दोनों ही विधि और निषेधरूप अनेकान्तात्मक वस्तुका बोध कराते हैं । जब विधिवाक्य बोला जाता है तो उसके द्वारा अपने विवक्षित विधि धर्मका प्रतिपादन होनेके साथ प्रतिषेध धर्मका भी मौन अस्तित्व स्वीकार किया जाता है— उसका निराकरण या लोप करके वह मात्र विधिका ही बोध नहीं कराता । इसी