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प्रस्तावसा
वाक्योंके विषयमें ही नहीं है, केवलियोंके भी वाक्योंमें 'स्यात' निपातपद निहित रहता है और वह एक ( विवक्षित ) धर्मका प्ररूपक होता हुआ अन्य सभी ( अविवक्षित ) धर्मोंका अस्तित्वप्रकाशक होता है ।
कारिका १०४ में उसो 'स्यात' के वाद (मान्यता) अर्थात् स्याद्वाद को स्पष्ट किया गया है। कहा गया है कि किञ्चित्, कथञ्चित् शब्दोंसे जिसका विधान होता है और जिसमें एकान्त की गन्ध नहीं है तथा जो सप्तभङ्गोनयसे विवक्षित ( उपादेय ) का विधायक एवं अविवक्षितों ( हेयों -शेष धर्मो) का निषेधक ( सन्मात्रसूचक) है वह स्याद्वाद है। कथञ्चिद्वाद, किञ्चिद्वाद इसीके पर्याय हैं ।
कारिका १०५ में स्याद्वादका महत्त्व घोषित करते हुए कहा गया है कि तत्त्वप्रकाशनमें स्याद्वादका वही महत्त्व है जो केवलज्ञानका है। दोनों ही समस्त तत्त्वोंके प्रकाशक हैं। उनमें यदि अन्तर है तो इतना ही कि केवलज्ञान साक्षात् समस्त तत्त्वोंका प्रकाशक है और स्याद्वाद असाक्षात् (परोक्ष ) उनका प्रकाशक है । ____ कारिका १०६ में प्रतिपादन है कि उल्लिखित तत्त्वप्रकाशन स्याद्वाद (श्रुत-अहेतुवाद-आगम) के अतिरिक्त नयसे भी होता है और नयसे यहाँ हेतु विवक्षित है। जो स्याद्वादके द्वारा जाने गये अर्थके विशेष (धर्म ) का गमक है तथा सपक्षके साधर्म्य एवं विपक्षके वैधर्म्य ( अन्यथानुपपन्नत्व) को लिए हुए है अर्थात् साध्यका अविनाभावी होता हुआ साध्यका साधक है वह हेतु है। व्याख्याकारोंने इस कारिकामें ग्रन्थकार द्वारा नयलक्षणके भी कहे जानेका व्याख्यान किया है। उनके व्याख्यानके अनुसार नय तत्त्वज्ञानका वह महत्त्वपूर्ण उपाय है जो स्याद्वादद्वारा प्रमित अनेकान्तके एक-एक धर्मका बोध कराता है । समग्रका ग्राहक ज्ञान तो प्रमाण है और असमग्रका ग्राहक नय है । यही इन दोनोंमें भेद है।
कारिका १०७ में जैन सम्मत वस्तु (प्रमेय ) का भी स्वरूप निरूपित है। ऊपर नयका निर्देश किया जा चुका है उसके तथा उसके भेदोंउपभेदों ( उपनयों) के विषयभूत त्रिकालवर्ती धमों ( गुण-पर्यायों ) के समुच्चय ( समष्टि ) का नाम द्रव्य ( वस्तु-प्रमेय ) है । यह समुच्चय